ग्रीष्म में भी लू गरीबो को ही लगती है
ठंढ में भी उन्ही की आत्मा सिहरती है.
रिक्त उदर जीर्ण वस्त्र छत्र आसमान है
हाथ उनके लगे बिना देश में न शान है
काया कृश सजल नयन दघ्ध ह्रदय करती है
ठंढ में भी उन्ही की आत्मा सिहरती है.
गगनचुम्बी भवनों की नींव में गरीब है.
महानगरों में इनकी बस्ती भी करीब है.
हारे खिलाड़ी सी इनकी शकल दिखती है
ठंढ में भी उन्ही की आत्मा सिहरती है.
सड़क के किनारे देखा लम्बी सी कतार है
कोई नेता आएंगे गूंजे जय जयकार है
नेता की ईज्जत भी दीन-भीड़ करती है
ठंढ में भी उन्ही की आत्मा सिहरती है.
(मौलिक व अप्रकाशित)
- जवाहर लाल सिंह
Comment
आदरणीय जवाहर लालजी हृदयस्पर्शी रचना है सादर बधाई इस रचना के लिये
जवाहर लाल जी
आपने सही कहा लू भी गरीब को लगे और शीत भी उसे ही सताए I गरीब की नियति ही है कष्ट सहना i सादर i
गरीबों की शीत ऋतू पर,,,,मनमोहक कविता,,आ.
आदरणीय जवाहर लाल जी.. इस कविता में आपने राष्ट्रीय चिंतन की झलक दिखाई है... बहुत-2 साधुवाद आपको!!
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