हम तुम्हारे थे पर तुम क्यूँ समझी नही
बेवजह सबकी बातों में उलझी रही
संदेहात्मक परिस्थिति भी सुलझी नही
तुम से जुड़ना ही मेरा गुनाह हो गया
मोहब्बत इस ज़माने में गुनाह हो गया |
तुम से मिलकर फ़कीर दिल भी राजा हुआ
मन का मुरझाया फूल भी ताजा हुआ
मेरे हर दुःख-दर्द का भी जनाजा हुआ
तुम्हारा पास आना भी गुनाह हो गया
मोहब्बत इस ज़माने में गुनाह हो गया |
तुमने दिए जो जख्म अब वो भरते नही
मेरी सांसे भी रुकने से अब तो डरते नही
मर चुके जो इश्क़ में अब वो मरते नही
तेरे इश्क़ में मरना गुनाह हो गया
मोहब्बत इस ज़माने में गुनाह हो गया |
हम बेगाने हुए कोई और आया
हमारे सिवा कोई और भाया
मेरे सपनों को कोई और लाया
हमसफ़र पे भरोसा गुनाह हो गया
मोहब्बत इस ज़माने में गुनाह हो गया ||
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"मौलिक व अप्रकाशित "
Comment
अच्छी रचना लगी भाई जी , बधाई ।
सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई महर्षि त्रिपाठी जी !
मेरी इस रचना पे आप सब के उत्साह के लिए ,हार्दिक धन्यवाद् |
आ.गोपाल जी ,अनुराग जी ,सोमेश जी और मिथिलेश जी |
mohabbat to bhayee har jamane me gunaah hee raha chaloo aapko apna jamana yad hai I achchhee kavita hai I
sunder prstuti
सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई
बढ़िया और सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें....
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