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डसेगी मुझको तनहाई ,कटेगा ये सफ़र कैसे
तेरा घर है मेरे दिल में, जलाऊँगा वो घर कैसे
किसी को भूल जाना भी नहीं होता क़भी आसां
तू कहता है भुलादूँ मैं ,बता तू ही मगर कैसै
मेरी इन सुर्ख आँखों में लहू ये क्यों उतर आया
मुहब्बत में लगा दिख़ने बगाव़त का असर कैसे
चला है बेव़फा होकर बसाने घर रक़ीबों का
किसी दिन लौट भी आया ,मिलायेगा नज़र कैसे
बहाता हूँ दो आँसू मैं,मेरी तनहाई के संग संग
मज़ा-ए- इश्क़ में देखो किया मैंने बसर कैसे
-----------उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
वाह , बहुत खूब
किसी को भूल जाना भी नहीं होता क़भी आसां
तू कहता है भुलादूँ मैं ,बता तू ही मगर कैसै
आदरणीय उमेश भाई , आ. बागी जी भी वही कह रहे हैं जो मै कह रहा हूँ , संग सही शब्द है जिसकी मात्रा 21 है , उसे सँग लिख के (2 मात्रा) मान लेना उचित नही है , ये मेरा ख़याल है , अतः मेरे हिसाब से संग 21 मानकर मिसरे मे सुधार कर लेना सही होगा , या संग शब्द को हटा कर कुछ और कहना । जैसे -- लिपट तनहाइयों से मैं बहाता हूँ सदा आँसू ( अगर सही लगे तो ? )
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी मैंने सँग सँग ही लिखा था पर आदरणीयEr. Ganesh Jee "Bagi" ने संग संग लिखने को कहा तो मैंने संग संग किया है
मैं तो आप दोनों ही को अपना गुरु मानता हूँ कृपया आप दोनों उचित मार्गदर्शन करें
और बतायें में क्या करूँ
सँग सँग जो मैंने पूर्व में लिखा था
Er. Ganesh Jee "Bagi"के कहे अनुसार
डसेगी मुझको तनहाई ,कटेगा ये सफ़र कैसे
तेरा घर है मेरे दिल में, जलाऊँगा वो घर कैसे
पहला ही शे'र दिल को तरंगित कर गया ,गज़ल भी अर्थपूर्ण हैं ,बाकी सुधार तो गुणीजन ने बता ही दिए हैं
आदरणीय उमेश भाई , बहुत सुन्दर गज़ल कही है , वाह !
मेरी इन सुर्ख आँखों में लहू ये क्यों उतर आया
मुहब्बत में लगा दिख़ने बगाव़त का असर कैसे
चला है बेव़फा होकर बसाने घर रक़ीबों का
किसी दिन लौट भी आया ,मिलायेगा नज़र कैसे - बहुत सुन्दर आदरणीय , हार्दिक बधाइयाँ ।
बहाता हूँ दो आँसू मैं,मेरी तनहाई के संग संग - अंतिम शे र का ये मिसरा बे बहर है
संग का क़ज़न आपको 21 लेना चाहिये , जैसे रंग का लिया जाता है , वर्तनी मे अगर चंद्र बिंन्दु हो . जैसे- सँवर तो मात्रा 12 लिया जाता है , ।
वाह भाई ग़ज़ल अच्छी लगी बधाई
बहाता हूँ दो आँसू मैं,मेरी तनहाई के सँग सँग
मज़ा-ए- इश्क़ में देखो किया मैंने बसर कैसे........आदरणीय उमेश कटारा जी बहुत खूब, शानदार ! हार्दिक बधाई आपको !
मेरी इन सुर्ख आँखों में लहू ये क्यों उतर आया
मुहब्बत में लगा दिख़ने व़गाबत का असर कैसे -- achha laga
//किसी को भूल जाना भी नहीं होता क़भी आसाँ आसां
तू कहता है भुलादूँ मैं, बता तू ही मगर कैसै
मेरी इन सुर्ख आँखों में लहू ये क्यों उतर आया
मुहब्बत में लगा दिख़ने व़गाबत बगावत का असर कैसे
बहाता हूँ दो आँसू मैं,मेरी तनहाई के सँग सँग संग संग
मज़ा-ए- इश्क़ में देखो किया मैंने बसर कैसे//
अच्छी ग़ज़ल प्रस्तुत हुई है, बधाई कटारा साहब.
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