For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल - कभी ठोकरों से सँभल गये -( गिरिराज भंडारी )

कभी ठोकरों से सँभल गये

*********************

11212      11212     11212    11212

न मैं कह सका, न वो सुन सके, मिले लम्हें थे,वो निकल गये

मैं इधर मुड़ा, वो उधर मुड़े , मेरे रास्ते, ही बदल गये

 

तेरी यादों की, हुई बारिशों , ने बहा लिया, कभी नींद को

कभी याद हम ही न कर सके, तो उदासियों में भी ढल गये

 

कभी हालतों से सुलह भी की, कभी वक़्त का किया सामना

कभी रुक गये, कभी जम गये, कभी बर्फ बन के पिघल गये

 

कभी बिन पिये रही बेखुदी, कहीं लड़खड़ाये पिये बिना

कभी पी के भी रहे होश में, कभी ठोकरों से सँभल गये

 

कहीं छोड़ दी सभी कोशिशें, तो हवा की रौ ने बहा लिया

दिया हौसलों ने भी साथ जब, मेरे ख़्वाब सारे मचल गये

 

कभी ये पकड़ ,कभी वो पकड़, कभी जा इधर, कभी जा उधर

कभी तय हुये नहीं रास्ते , वो जो हाथ आये थे पल गये

 

कभी हादिसों ने रुलाया तो , कभी गमज़दों की पुकार ने

कभी बढ़ के दिल से लगा लिया, कभी आँसुओं से दहल गये

******************************************************* 

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

Views: 948

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 9, 2015 at 7:25am

आदाणीय सोमेश भाई , आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिये आपका दिल से आभारी हूँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 9, 2015 at 7:24am

आदरणीय खुर्शीद भाई , आपका मेरी गज़ल आना ही मेरा उत्साह वढा देता है , आपके स्नेह के लिये बहुत शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 9, 2015 at 7:21am

आदरणीय विजय शंकर भाई , हौसला अफज़ाई का बहुत शुक्रिया ।


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 8, 2015 at 10:10pm

//मैं इधर मुड़ा, वो उधर मुड़े , मेरे अब रास्ते, ही बदल गये//

यहाँ मैं भाई मिथिलेश जी से सहमत हूँ .

ग़ज़ल अच्छी लगी आदरणीय गिरिराज भाई साहब, अंतिम शेर का मिसरा उला देख लें, तकाबुले रदीफ़ दीख रहा है. इस ग़ज़ल पर बधाई आदरणीय.

Comment by Anurag Prateek on January 8, 2015 at 9:51pm

आ. मिथिलेश वामनकर सर, कभी मौका मिला तो बोलकर सुनाऊंगा कि इस बहार की  चाल क्या होती है 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 8, 2015 at 9:47pm
आदरणीय अनुराग भाई आप स्पष्ट टिप्पणी कीजिये ताकि बात समझ आ सके। मैंने वो जो हममे तुममे करार था तुम्हे याद हो कि न याद हो गुनगुनाई पर आपकी बात समझ नहीं आई। मार्गदर्शन करे निवेदन है। सादर। एक और निवेदन किताबों के नाम लिखते है साथ में प्रकाशक का नाम भी बता दे तो हम भी कुछ पढ़कर चर्चा लायक बन सकेंगे। अब तक अरूज़ की किताब देखि भी नहीँ है। सादर।
Comment by Anurag Prateek on January 8, 2015 at 9:30pm

 

आ. गिरिराज भंडारीग़ज़ल अच्छी हुई हगे लेकिन इस बह्र के चाल की(मुआफी  चाहता हूँ) जो आत्मा है उस तक कई जगहों पर ठीक से  शायद आप पंहुच नहीं पाए. आप से बहुत सीखने की आशाएं हैं. ‘हकीम  मोमिन’ की ‘’वो जो हममें तुममें ..’’ ग़ज़ल को कुछ देर गुनगुनाएं , बात सामने आ जायेगी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 8, 2015 at 8:12pm

आदरणीय गिरिराज सर इस बह्र में आप कमाल लिखते है आनंद आ गया पढ़कर ... ढेर सारी बधाइयाँ....

मतले में 

मैं इधर मुड़ा, वो उधर मुड़े , मेरे रास्ते, ही बदल गये..... मैं और वो दोनों मुड़े तो फिर मेरे ही रास्ते क्यों बदल रहे है ... रास्ते दोनों के बदले है ... दूसरा मेरे रास्ते... र-रा की टक्कर परेशां कर रही है .... दुई रास्ते, ही बदल वाला कुछ बदलाव हो जाए तो आनंद चौगुना हो जाएगा ... बाकी सभी अशआर बेहतरीन और उम्दा है .... मेरे फेवरेट 

कभी हालतों से सुलह भी की, कभी वक़्त का किया सामना

कभी रुक गये, कभी जम गये, कभी बर्फ बन के पिघल गये

कभी हादिसों ने रुलाया तो , कभी गमज़दों की पुकार ने

कभी बढ़ के दिल से लगा लिया, कभी आँसुओं से दहल गये

Comment by Hari Prakash Dubey on January 8, 2015 at 8:06pm

न मैं कह सका, न वो सुन सके, मिले लम्हें थे,वो निकल गये

मैं इधर मुड़ा, वो उधर मुड़े , मेरे रास्ते, ही बदल गये......बहुत ही सुन्दर रचना  ,  हार्दिक बधाई आदरणीय गिरिराज भंडारी सर ! सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 8, 2015 at 7:54pm

क्या बात है ! बहुत ही उम्दा  गजल i बधाई होi

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-185

परम आत्मीय स्वजन, ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 185 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का…See More
yesterday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 173

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रस्तुति पर आपसे मिली शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद ..  सादर"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

आदमी क्या आदमी को जानता है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२२ कर तरक्की जो सभा में बोलता है बाँध पाँवो को वही छिप रोकता है।। * देवता जिस को…See More
Tuesday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
Monday
Sushil Sarna posted blog posts
Nov 6
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Nov 5
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
Nov 5

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Nov 2
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Nov 1
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Oct 31
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Oct 31

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service