" मिल गया चैन तुमको , हो गयी तसल्ली " , उसके पिता खुद को संभाल नहीं पा रहे थे | " कितनी बार मना किया था कि उसे वहां मत भेजो , अब खो दिया न उसको "| बेटी की असमय मौत ने उनको तोड़ दिया था |
टूट तो मैं भी गयी थी लेकिन मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि बेटी को उसकी मर्ज़ी की जगह नौकरी करने की वकालत करके मैंने कौन सा गुनाह कर दिया था | उसकी कही बात जेहन में घूम रही थी " जाना तो एक दिन सब को है माँ , तो क्यों न निडर होके अपने तरीके से जिया जाए | अपना आसमाँ खुद ढूंढा जाए "| बेहद मुश्किल था अब लेकिन मुझे सम्भालना था , खुद को भी और परिवार को भी | शायद बेटी की आत्मा के आसमाँ के लिए |
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
अपने पीछे कई प्रश्न छोड़ जाती लघुकथा
आदरणीय विनय जी बधाई एक और सफल लघुकथा के लिए
विनय जी
बड़ा ही सांकेतिक है i कई प्रश्न भी उठते है i क्या अपना आसमाँ खुद तलाशने के लिए अनुभव पर जवानी को तरजीह देना उचित है i पर सांकेतिक होने के कारण कथा अपना प्रभाव छोडती है i सादर i
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