शेखर वेश्यावृति पर केन्द्रित एक किताब लिख रहा था, किन्तु उसे पत्रकार समझ इस धंधे से जुड़ी कोई भी लड़की कुछ बताना नहीं चाहती थी, आखिर उसने ग्राहक बन वहाँ जाने का निर्णय लिया.
“आओ साहब आओ, पाँच सौ लगेंगे, उससे एक पैसा कम नहीं”
शेखर ने हाँ में सर हिलाया और उसके साथ कमरे में चला गया.
“सुनो, मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूँ”
“बाssत ?”
“हां, कुछ सवाल पूछना चाहता हूँ”
“ऐ... साहेब, काहे को अपना और मेरा समय खोटी कर रहे हो, आप अपना काम करो और यहाँ से निकलो”
बहुत आग्रह के बाद भी जब वो कुछ भी बताने को तैयार नहीं हुई तो शेखर उठा और उसकी हथेली पर पाँच सौ का नोट रखकर चलने लगा.
“ऐ साहेब, ये पैसे आप वापस रखों, मैं बगैर काम पैसे नहीं लेती”.
(मौलिक व अप्रकाशित)
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Comment
वाह बागी जी कमाल कथा कही है बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई '
आदरणीय बागी जी , ये सच है कि गलत काम किसी बड़ी मजबूरी मे करना ही पड़े , और उस मजबूरी को हर पल जिया जाये तो , स्वाभिमान कभी मरता नहीं , पानी में तेल से समान हमेशा तैरता रहता है । बहुत बारीक मनोस्थिति को आपकी कथा ले कर चली है , दिल से बधाइयाँ आपको ॥
आदरणीय इंजिनियर गणेश जी “बागी” सर , .....वाह ....जहां फाइलें सरकाने के लिए भी पैसे देने का चलन है वहीँ किसी की गैरत कहती है “मैं बगैर काम पैसे नहीं लेती”.....वाह ...... बहुत सुन्दर , हार्दिक बधाई ! सादर
गैरत अभी बाकी है, बहुत उम्दा लघुकथा | बधाई आपको |
आज के समय में पैसों के लिए, इंसान की अकर्मण्यता और शार्टकट मारने की आदतों पर गजब का प्रहार करती लघुकथा पर, हार्दिक बधाई आदरणीय बागी जी.
सराहना हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीय इंजिनियर नोहर सिंह ध्रूव 'नरेन्द्र' जी.
उत्साहवर्धन और सराहना हेतु हृदय से आभार आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी.
आदरणीया अर्चना त्रिपाठी जी, सकरात्मक प्रतिक्रया हेतु बहुत बहुत आभार.
बेहतरीन लघुकथा,,बधाई आपको,,, सादर ................. |
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