२१२२ २१२२ २१२२२
रहनुमा वो कह गया है क्या इशारों में
चारसू उठता धुंआ ही अब नजारों में
धुंध कुछ छाई है ऐसी अब फलक पे यूं
रोशनी मद्दिम सी लगती चाँद तारों में
साजिशों की आ रही है हर तरफ से बू
छुप के बैठी हैं खिजाएँ अब बहारों में
खेलते जो लोग थे तूफाँ में लहरों से
वक़्त ने उनको धकेला है किनारों में
है नहीं महफूज दुल्हन डोलियों में अब
क्या पता अहबाब ही हों इन कहारों में
हो गयी काफूर अब मुस्कान ओंठों से
हौसला दिखता नहीं अब आबशारों में
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
साजिशों की आ रही है हर तरफ से बू
छुप के बैठी हैं खिजाएँ अब बहारों में
आदरणीय आशुतोष जी सुन्दर ग़ज़ल हुई है |दोस्तों के साथ रहते दुल्हन की डोली का लूट जाना थोड़ा अतार्किक है |सादर अभिनन्दन |
आदरणीय आशुतोष भाई , बढिया ग़ज़ल कही है , दिली दाद कुबूल करें । आ. शिज्जु भाई जी से मै भे सहमत हूं --
है नहीं महफूज दुल्हन डोलियों में अब
क्या पता अहबाब ही हों इन कहारों में -- तार्किक रूप से ये शे र सही नहीं लग रहा है ।
आदरणीय आशुतोष जी आपकी रचनायें अब बेहतर से बेहतर होती जा रही है इसका उदाहरण ये ग़ज़ल है बहुत बहुत बधाई आपको
है नहीं महफूज दुल्हन डोलियों में अब
क्या पता अहबाब ही हों इन कहारों में - बस यहाँ देखिये कहारों में अहबाब हैं तो दुल्हन महफ़ूज़ क्यों नहीं ये समझ नहीं पा रहा हूँ।
क्षमा सहित
आदरणीय मिथिलेश जी रचना पर आपनी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद ..आपके सवाल के जवाब में मैं सिर्फ ये कहूँगा की जरूरी नहीं मैं सही हूँ ..पर पर्यावaiरण में ओजोन लेयर की बजह से जिसका कारण प्रदूषण है से तापमान के बढ़ने के कारन न तो बर्फ जम पा रही है और न पानी की बूंदे संघनित हो पा रही हैं जिसकी बजह से झरनों में पानी का वो प्रवाह या यों कहने जीवन की चाह परिलक्षित नहीं होती बैसे ही कुछ जीवन में देखने को मिल रहा है आतंकवाद जैसा कृत्य जीवन को शांति प्रदान करने वाली संस्कृति और प्रेम की ओजोन लेयर को छिन्न भिन्न कर रही है परिणाम स्वरूप अब सब जीवन जी तो रहे हैं पर वो मुस्कान ओंठो से नदारत है .मैंने इस भाव से लिखा था .यदि कोई गलती हो तो संकोच मत करियेगा .मेरा मार्गदर्शन अवश्य करियेगा ..सादर प्रणाम के साथ
आदरणीय गुमनाम जी रचना आपको पसंद आयी ..मेरा लेखन सार्थक हुआ ..आपको तहे दिल धन्यवाद सादर
Aadarniya Dr.Mishra Sb.
Khubsurat gazhal ke liye dheron badhai. Dil ko chune wali rachna.
है नहीं महफूज दुल्हन डोलियों में अब
क्या पता अहबाब ही हों इन कहारों में.......
बहुत ही गहरी बात कही आ० भाई आशुतोष जी , हार्दिक बधाई l
वाह! आदरणीय डा. आशुतोष जी, बेहद खूबसूरत गजल
साजिशों की आ रही है हर तरफ से बू
छुप के बैठी हैं खिजाएँ अब बहारों में
खेलते जो लोग थे तूफाँ में लहरों से
वक़्त ने उनको धकेला है किनारों में........बहुत खूब. विशेष बधाई स्वीकार करें
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