"आप का नाम क्या है ?" बगल में आई नयी पड़ोसन ने पूछा |
वो सोच में पड़ गयी , क्या बताये | शादी के बाद जब से इस घर में आई है तब से तो किसी ने उसके नाम से नहीं पुकारा | शुरू में बहू , फिर मुन्ने की माँ और अब मिसेस शर्मा , यही सुनती आई है वो | शायद तीस साल बहुत होते हैं किसी को खुद का वजूद भूलने के लिए | वो अपना वजूद ढूँढ रही थी , पड़ोसन चली गयी थी |
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मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय शरदिंदु मुखेर्जी जी ..
बहुत बहुत आभार आदरणीय योगराज प्रभाकर जी | आपकी विस्तृत टिप्पणी पाकर मन प्रसन्न हुआ | आपकी राय बिलकुल सही है ..
निज पहचान को खोती हुई मध्यवर्गीय गृहणी की व्यथा को सुन्दर शब्दों में पिरोया है भाई विनय सिंह जी। लघुकथा सुन्दर हुई है, किन्तु इसका अंत कहीं बेहतर हो सकता था। मुझे हमसूस हो रहा है कि कहानी के अंत में श्रीमती शर्मा का खामोश रहना और बिना कुछ कहे-सुने पड़ोसन का वापिस लौट जाना, ज़रूर कमी की तरफ इशारा नहीं कर रहा है। क्या यहाँ "वजूद गुम हो जाने" के दर्द को थोड़ा और विस्तार नहीं दिया जाना चाहिए था ? मसलन, श्रीमती शर्मा को ऊहापोह में पड़े देखते हुए यदि नई पड़ोसन ये कह दे कि "ठीक है, मैं आज से आपको "ऑन्टी" बुलाऊँगी !" और इसके बाद वो अपना खोया वजूद ढूंढे तो कैसा रहे ? ज़रा सोच कर देखें।
बहुत बहुत आभार आदरणीय सोमेश कुमार जी..
nari jivan ka sunder ytharth
बहुत बहुत आभार आदरणीय शिज्जु "शकूर" जी..
आदरणीय विनय जी आपने एक अनछुये पहलू को उभारा है, बधाई इस लघुकथा के लिये
बहुत बहुत आभार आदरणीय श्याम मठपाल जी..
Aadarniya vinay ji,
Badhai Ho. Apna ghar dhunte huwe apna wajud bhool gaye
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