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कभी जिन्दगी को जिया होता
ख़ुदा का अदा शुक्रिया होता
मुकम्मल नई इक ग़ज़ल होती
अगर अश्क़ हँस के पिया होता
फ़लक चूमता ये कदम तेरे
कोई काम ऐसा किया होता
बिखरती न गिरती दुआ रब की
अगर चाकदामन सिया होता
कई रास्ते खुल गए होते
किसी का कभी गम लिया होता
कहाँ काटता यूँ अकेलापन
किसी को सहारा दिया होता
है क्या जीस्त खानाबदोशों की
ठिकाना न जिनका ठिया होता
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
गुमनाम जी तहे दिल से शुक्रिया आपका .
आदरणीया राजेश दीदी, बहुत खूबसूरत अश'आर कहे हैं आपने. यह दो अशआर बहुत पसंदीदा हुए, दिली दाद कुबूल कीजियेगा
बिखरती न गिरती दुआ रब की
अगर चाकदामन सिया होता....बहुत सुंदर
कई रास्ते खुल गए होते
किसी का कभी गम लिया होता....अवसरवादीयों के लिए :))
है क्या जीस्त खानाबदोशों की
ठिकाना न जिनका ठिया होता
सुंदर गज़ल पर हार्दिक बधाई दीदी जी
बेहतरीन ग़ज़ल की हार्दिक शुभकामनायें |
आदरणीया राजेश कुमारी जी उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई. शेर दर शेर दाद कुबूल करे.
मतला कमाल का हुआ है जैसे ज़िन्दगी का निचोड़ ---
कभी जिन्दगी को जिया होता
ख़ुदा का अदा शुक्रिया होता
अच्छा है...
है क्या जीस्त खानाबदोशों की
ठिकाना न जिनका ठिया होता
वाह खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकारें
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