सोने का संसार !
उषा छिप गयी नभस्थली में,
देकर यह उपहार !
लघु–लघु कलियाँ भी प्रभात में,
होती हैं साकार !
प्रातः- समीरण कर देता है,
नव-जीवन संचार !
लोल-लोल लहलही लतायें,
नव-जीवन-संचार !
झुकी जा रही हैं ले तन में,
नव यौवन का भार !
भ्रमर छूटकर पंकज दल से,
करने लगे विहार !
भानु-करों ने खोल दिया है ,
काराग्रह का द्वार
कल-किरणें हैं शयन-सदन की ,
मंजुल वंदनवार !
सजनी रजनी की सुख स्मृति ही,
बस अब है आधार !
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित
Comment
उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय खुर्शीद खैराड़ी साहब सादर ! एक निवेदन है अपने नाम की हिंदी में लिपि टाइप कर के भेज दें !
आदरणीय डॉ आशुतोष जी रचना पर आपकी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, आपका विश्लेषण सही है , देखिये मंच पर ही सीख रहा हूँ , मार्दर्शन करते रहिएगा ! सादर
प्रिय सोमेश भाई आपकी प्रतिक्रिया, उत्साहवर्धन और सराहना हेतु दिल से आभार.
आदरणीया प्रतिभा त्रिपाठी जी , रचना पर आपकी उपस्तिथी ,उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार , सादर!
लोल-लोल लहलही लतायें, सजनी रजनी की सुख स्मृति ही, लघु–लघु कलियाँ भी प्रभात में,
आदरणीय हरिप्रकाश जी सुन्दर कविता में बहुत ही सुन्दर मनभावन अनुप्रास की छठा बिखेरी गई है ,हार्दिक बधाई |सादर अभिन्दन |
आदरणीय डॉ विजय शंकर जी, रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु सादर धन्यवाद !
आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया सर उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आपका हार्दिक आभार ! सादर
रचना की मुक्तकंठ से प्रशंसा हेतु हार्दिक आभार भाई मिथिलेश वामनकर जी। आपका सुझाव भी शिरोधार्य है ,ठीक करता हूँ ! सादर
आदरणीया सविता मिश्रा जी, रचना की सराहना हेतु आपका हार्दिक आभार ! सादर
सुंदर शब्दों में प्रभात कल का मनोहरी वर्णन |सुंदर प्रस्तुति पर बधाई भाई जी |
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