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झूठ को झूठ अब भी कहता मैं
मुझ में बाक़ी है बचपना शायद
रात भर करवटें बदलता हूँ
बोझ पापों का बढ़ गया शायद
वाह आदरणीय बहुत ही खूबसूरत अशआर बन पड़े हैं आपकी इस खूबसूरत ग़ज़ल में। इस दिलकश प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।
आदरणीय दिनेश भाई , क्या खूब गज़ल हुई है , दिली बधाइया स्वीकार करें ।
जिन्दगी उलझनों का नाम हुई
ले रहा इम्तिहाँ ख़ुदा शायद --- बहुत खूब ,
जख़्म उसका कोई हरा शायद - इस मिसरे में क्रिया की ज़रूरत है , अगर ऐसा कहें तो ?- जख़्म उसका है इक हरा शायद
किस लिये तू 'दिनेश' ख़ौफजदा -- इसमे भी क्रिया की कमी है , -- इस ऐसा कहें तो ? किस लिये है 'दिनेश' ख़ौफजदा
बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें । |
वाह्ह्ह्ह!
बहुत खुबसूरत ग़ज़ल ..बधाई
दिल है सीने से लापता शायद
इश्क़ मुझको भी हो गया शायद......... क्या बात है दिनेश भाई जी सुन्दर मतला हुआ है.
जिन्दगी उलझनों का नाम हुई
ले रहा इम्तिहाँ ख़ुदा शायद..... वाह वाह क्या खूब कहा है.... दिल से दाद कुबूल फरमाए
बिन कहे वो मिरी करे इमदाद
ज़ेह्न में उसके कुछ पका शायद....... आह... वाह वाह ... कमाल की कहन ...
हर घड़ी वो जो मुस्कुराता है.
जख़्म उसका कोई हरा शायद........ आय हाय ... पुरानी बात मगर नया अंदाज
झूठ को झूठ अब भी कहता मैं
मुझ में बाक़ी है बचपना शायद....... शानदार शेर हुआ है दिनेश भाई
रात भर करवटें बदलता हूँ
बोझ पापों का बढ़ गया शायद....... वाह वाह बहुत बेहतरीन
कौन करता लिहाज़ अपनों का
जह्र रिश्तों में अब घुला शायद..... अच्छा तंज आज के मरासिम पर
नर्म लहज़े में आप बात करें
काम कुछ मुझसे आ पड़ा शायद.... आय हाय ये भी कमाल हुआ दिनेश भाई
शेख ये सोच कर नमाज पढ़े
वक़्त-ए-आखिर हो कुछ नफा शायद..... अच्छा शेर
आप की दाद ने मुझे बख़्शा
शे'र कहने का होंसला शायद.... बहुत खूब पाठक से बात करता शेर
किस लिये तू 'दिनेश' ख़ौफजदा
जबकि रब तेरा रहनुमा शायद............ मक्ता ग़ज़ल के बाकी अशआर से कुछ हल्का लग रहा है .. मेरे मुताबिक
पूरी ग़ज़ल के लिए दिल से दाद कुबूल फरमाए. मज़ा आ गया आपकी बेहतरीन ग़ज़ल गुनगुनाकर.
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