For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल -- दिल है सीने से लापता शायद

दिल है सीने से लापता शायद
इश्क़ मुझको भी हो गया शायद

जिन्दगी उलझनों का नाम हुई
ले रहा इम्तिहाँ ख़ुदा शायद

बिन कहे वो मिरी करे इमदाद
ज़ेह्न में उसके कुछ पका शायद

हर घड़ी वो जो मुस्कुराता है.
जख़्म उसका कोई हरा शायद

झूठ को झूठ अब भी कहता मैं
मुझ में बाक़ी है बचपना शायद

रात भर करवटें बदलता हूँ
बोझ पापों का बढ़ गया शायद

कौन करता लिहाज़ अपनों का
जह्र रिश्तों में अब घुला शायद

नर्म लहज़े में आप बात करें
काम कुछ मुझसे आ पड़ा शायद

शेख ये सोच कर नमाज पढ़े
वक़्त-ए-आखिर हो कुछ नफा शायद

आप की दाद ने मुझे बख़्शा
शे'र कहने का होंसला शायद

किस लिये तू 'दिनेश' ख़ौफजदा
जबकि रब तेरा रहनुमा शायद


-- दिनेश कुमार ०९/०२/२०१५

( मौलिक व अप्रकाशित )

Views: 867

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by दिनेश कुमार on February 10, 2015 at 5:07pm
बहुत शुक्रिया सर्वेश कुमार भाई
Comment by दिनेश कुमार on February 10, 2015 at 5:06pm
बहुत शुक्रिया आदरणीय Dimple Gaur ji....
Comment by दिनेश कुमार on February 10, 2015 at 5:01pm
हार्दिक आभार भाई मिथिलेश जी। आप ने मनोबल बढ़ाया है। मुझ जैसे निराशावादी व अवसादग्रस्त व्यक्ति को इसकी आवश्यकता थी। मक्ता बदलने की कोशिश करता हूँ। पुनः आभार
Comment by दिनेश कुमार on February 10, 2015 at 4:54pm
बहुत शुक्रिया आदरणीय विजय शंकर जी।
Comment by Sushil Sarna on February 10, 2015 at 4:05pm

झूठ को झूठ अब भी कहता मैं
मुझ में बाक़ी है बचपना शायद

रात भर करवटें बदलता हूँ
बोझ पापों का बढ़ गया शायद

वाह आदरणीय बहुत ही खूबसूरत अशआर बन पड़े हैं आपकी इस खूबसूरत ग़ज़ल में। इस दिलकश प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 10, 2015 at 10:25am

आदरणीय दिनेश भाई , क्या खूब गज़ल हुई है , दिली बधाइया स्वीकार करें । 

जिन्दगी उलझनों का नाम हुई
ले रहा इम्तिहाँ ख़ुदा शायद  ---   बहुत खूब ,   

जख़्म उसका कोई हरा शायद - इस मिसरे में क्रिया की ज़रूरत है , अगर ऐसा कहें तो ?-  जख़्म उसका है इक  हरा शायद

किस लिये तू 'दिनेश' ख़ौफजदा  -- इसमे भी क्रिया की कमी है , -- इस ऐसा कहें तो ?   किस लिये  है 'दिनेश' ख़ौफजदा 

Comment by Shyam Narain Verma on February 10, 2015 at 9:59am
बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें ।
Comment by सर्वेश कुमार मिश्र on February 10, 2015 at 3:51am

वाह्ह्ह्ह!

Comment by डिम्पल गौड़ on February 10, 2015 at 12:39am

बहुत खुबसूरत ग़ज़ल ..बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 9, 2015 at 11:05pm

दिल है सीने से लापता शायद
इश्क़ मुझको भी हो गया शायद......... क्या बात है दिनेश भाई जी सुन्दर मतला हुआ है.

जिन्दगी उलझनों का नाम हुई
ले रहा इम्तिहाँ ख़ुदा शायद..... वाह वाह क्या खूब कहा है.... दिल से दाद कुबूल फरमाए 

बिन कहे वो मिरी करे इमदाद
ज़ेह्न में उसके कुछ पका शायद....... आह... वाह वाह ... कमाल की कहन ... 

हर घड़ी वो जो मुस्कुराता है.
जख़्म उसका कोई हरा शायद........ आय हाय ... पुरानी बात मगर नया अंदाज 

झूठ को झूठ अब भी कहता मैं
मुझ में बाक़ी है बचपना शायद....... शानदार शेर हुआ है दिनेश भाई 

रात भर करवटें बदलता हूँ
बोझ पापों का बढ़ गया शायद....... वाह वाह बहुत बेहतरीन 

कौन करता लिहाज़ अपनों का
जह्र रिश्तों में अब घुला शायद..... अच्छा तंज आज के मरासिम पर 

नर्म लहज़े में आप बात करें
काम कुछ मुझसे आ पड़ा शायद.... आय हाय ये भी कमाल हुआ दिनेश भाई 

शेख ये सोच कर नमाज पढ़े
वक़्त-ए-आखिर हो कुछ नफा शायद..... अच्छा शेर 

आप की दाद ने मुझे बख़्शा
शे'र कहने का होंसला शायद.... बहुत खूब पाठक से बात करता शेर 

किस लिये तू 'दिनेश' ख़ौफजदा
जबकि रब तेरा रहनुमा शायद............ मक्ता ग़ज़ल के बाकी अशआर से कुछ हल्का लग रहा है .. मेरे मुताबिक 

पूरी ग़ज़ल के लिए दिल से दाद कुबूल फरमाए. मज़ा आ गया आपकी बेहतरीन ग़ज़ल गुनगुनाकर.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

न पावन हुए जब मनों के लिए -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

१२२/१२२/१२२/१२****सदा बँट के जग में जमातों में हम रहे खून  लिखते  किताबों में हम।१। * हमें मौत …See More
7 hours ago
ajay sharma shared a profile on Facebook
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"शुक्रिया आदरणीय।"
Monday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, पोस्ट पर आने एवं अपने विचारों से मार्ग दर्शन के लिए हार्दिक आभार।"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। पति-पत्नी संबंधों में यकायक तनाव आने और कोर्ट-कचहरी तक जाकर‌ वापस सकारात्मक…"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदाब। सोशल मीडियाई मित्रता के चलन के एक पहलू को उजागर करती सांकेतिक तंजदार रचना हेतु हार्दिक बधाई…"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार।‌ रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर रचना के संदेश पर समीक्षात्मक टिप्पणी और…"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदाब।‌ रचना पटल पर समय देकर रचना के मर्म पर समीक्षात्मक टिप्पणी और प्रोत्साहन हेतु हार्दिक…"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, आपकी लघु कथा हम भारतीयों की विदेश में रहने वालों के प्रति जो…"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय मनन कुमार जी, आपने इतनी संक्षेप में बात को प्रसतुत कर सारी कहानी बता दी। इसे कहते हे बात…"
Sunday
AMAN SINHA and रौशन जसवाल विक्षिप्‍त are now friends
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय मिथलेश वामनकर जी, प्रेत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service