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आदरणीय दिनेश भाई जी इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं. ये शेर बड़े उम्दा हुए है-
माली के ही हाथों उजड़ा
ऐसा भी उपवन देखा है.
काँप गया हूँ भीतर तक मैं
जबसे ये दर्पण देखा है
ढूँढ़ रही है बूढ़ी आँखें
क्या तुमने बचपन देखा है ?
हमने घर के बँटवारे में
रोता ये आँगन देखा है.
धनवानों का अक्सर मैंने
निर्धन अन्तर्मन देखा है
आदरणीय दिनेश कुमार जी सुन्दर प्रस्तुति ,हार्दिक बधाई !
ढूँढ़ रही है बूढ़ी आँखें
क्या तुमने बचपन देखा है ?
हमने घर के बँटवारे में
रोता ये आँगन देखा है.
गज़ल की सभी पंक्तियाँ अन्दर तक छू गईं | बधाई
भाई दिनेश कुमारजी, आपकी ग़ज़ल के लिए धन्यवाद. कहना न होगा, आपकी सोच ज़मीनी है.
अच्छे अश’आर हुए हैं.
काँप गया हूँ भीतर तक मैं
जबसे ये दर्पण देखा है
दिल का मोर खुशी को तरसे
इसने कब सावन देखा है
दूर कहीं अब धरती के संग
हम ने नील गगन देखा है
लेकिन जो बात विशेष रूप से कहनी है. वह काफ़िया को लेकर है.
जब उर्दू वर्णमाला के अनेक ’ज’, ’ह’ या ’स’ आदि को लेकर तो हम इतने संवेदनशील रहते हैं. इतना कि, हिन्दी के ग़ज़लकारों को भी भाईलोग उर्दू के हिसाब से सीख देने से बाज़ नहीं आते कि अक्षर निभाये नहीं गये, अतः ग़ज़ल ख़ारिज़ है. जबकि दोनों वर्णमालाओं के अक्षर पूरी तरह से भिन्न हैं, बस भाषा-व्याकारण में साम्य है.
क्या इन्हीं संदर्भों में हम हिन्दी वर्णमाला के अक्षरों को ग़ज़ल कहते समय डिस्टिंक्ट नहीं कर सकते ? टवर्ग का ’ण’ तवर्ग के ’न’ से क्यों साम्य बनाये ?
मैं कोई रोक नहीं लगा रहा, बस प्रश्न कर रहा हूँ ताकि मेरी भी जानकारी बढ़े. क्योंकि हमारा आशय उर्दू-हिन्दी या अक्षर-भाषा आदि का विवाद न हो कर ग़ज़ल की विधा को समर्थन देना है. जबकि हो यह रहा है कि हिन्दी भाषा के ग़ज़लकारों को शब्द ही नहीं अक्षर तक सीखने की सलाह दे दी जाती है.
सोचियेगा.
शुभेच्छाएँ
उम्दा रचना...बधाई!
आदरणीय दिनेश कुमार जी, माह का सक्रिय सदस्य चयनित होने की बधाई...
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