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हमें इज़ाज़त मिले ज़रा हम नई सदी को निकल रहे है
जवाँ परिंदे उड़ानों की अब, हर इक इबारत बदल रहे हैं।*
गुलाबी सपने उफ़क में कितने मुहब्बतों से बिखर गए है
नया सवेरा अज़ीम करने, किसी के अरमां मचल रहे है।
मिले थे ऐसे वो ज़िन्दगी से, मिले कोई जैसे अजनबी से
हयात से जो मिली है ठोकर जरा - जरा हम संभल रहे है।
अजीब महफ़िल, अजीब आलम, अजीब हस्ती, अजीब मस्ती
किसी के अहसास पल रहे है किसी के ज़ज्बात जल रहे है।
बुजुर्गों अपनी ‘नसल’ पे तुम भी यकीन इतना जुरूर रखना
बड़े अदब से औ एहतियातन जमाना हम तो बदल रहे है।
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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* आदरणीय गिरिराज सर द्वारा सुझाये संशोधन पश्चात् मिसरा.
Comment
आदरणीय डॉ.कंवर करतार 'खन्देह्ड़वी' जी सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.
भाई मिथिलेश,अती सुंदर ग़ज़ल के लिए ढेरों दाद /बधाई I
आदरणीय दिनेश भाई जी बड़ी ही मधुर बह्र है, गुनगुनाते हुए लिख लेता हूँ, अभी वैसी पकड़ नहीं आई है. कोशिश जारी है.
चलो पड़ी तो नज़र ज़रा सी जो दाद पाई यकीन आया
दिनेश भाई का शुक्रिया ये ग़ज़ल कही औ सफल रहे है
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर, इस सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार.
आ० भाई मिथिलेश जी , is बेहतरीन गजल के लिए हार्दिक बधाई . .
आदरणीया राजेश कुमारी जी, आपकी टिप्पणी देखकर ही दिल खुश हो जाता है उस पर सकारात्मक प्रतिक्रिया, सस्नेह सराहना के साथ हो तो बस झूम जाता हूँ. आपके स्नेह से सदा की तरह अभिभूत हूँ. रचना पर आपकी उपस्थिति से मान बढाने के लिए हृदय से आभार. नमन
आदरणीय सोमेश भाई जी सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. आप स्वयं एक अच्छे रचनाकार है इसलिए आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए सदा से अमूल्य रही है. हार्दिक धन्यवाद
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