ग़ज़ल में दर्द ढल कर आ रहा है अब
कोई दरिया मचल कर आ रहा है अब
बड़े साहब ने इक साँचा बनाया है
जिसे देखो पिघल कर आ रहा है अब
ज़रा सा होश खोते ही हुआ जादू
जुबां पर सच निकल कर आ रहा है अब
चलो अच्छा हुआ जो ठोकरें खायी
गिरा लेकिन सँभल कर आ रहा है अब
बनाया मोम से पत्थर जिसे मैंने
मेरी जानिब उछल कर आ रहा है अब
गरज़ ढुलते ही रस्ता हो गया चिकना
मेरे घर वो फिसल कर आ रहा है अब
जिगर ‘खुरशीद’ का दिन भर फलक पर था
चरागों में भी जल कर आ रहा है अब
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीया राजेश कुमारी जी ,स्नेह के लिए आभार |सादर |
आदरणीय सौरभ सर , आदरणीय समर साहब ,आप जैसी महान विभूतियों का ग़ज़ल पर आना ही हौसलों को नभ तक पहुँचा देता है |इसी तरह समय समय पर आशीर्वाद देने के लिए पधारते रहें |सादर आभार |
आदरणीय मिथिलेश जी ,आदरणीय हरिप्रकाश जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई ,ग़ज़ल का कहा जाना सार्थक हुआ |मुहब्बत बनाये रखियेगा साहब |सादर |
आदरणीय गुमनाम साहब,आदरणीय अजय शरमा जी ,आपके शब्दों ने मेरे उत्साह में सकारात्मक वर्द्धि की है |सादर आभार
आदरणीय महर्षि त्रिपाठी जी,आदरणीय विजशंकर सर ,आपके स्नेह से अभिभूत हूं |नज़रेकरम बनाये रखियेगा |सादर |
आदरणीय गोपाल नारायण सर , आदरणीय गिरिराज सर आशीर्वाद बनाये रखियेगा |सादर |
आदरणीय धर्मेंदर जी ,आदरणीय दिनेश जी ,आदरणीय नीरज मिश्रा जी ,आप सभी का हृदय से आभारी हूं |अगर मतला यूँ खे जाने पर आपको पसंद आ रहा है तो आपके स्नेह को समर्पित संशोधन प्रस्तुत है |
कोई दरिया मचल कर आ रहा है अब
ग़ज़ल में दर्द ढल कर आ रहा है अब
आशा है आप स्नेह बनाये रखेगे |सादर
बड़े साहब ने इक साँचा बनाया है
जिसे देखो पिघल कर आ रहा है अब
ज़रा सा होश खोते ही हुआ जादू
जुबां पर सच निकल कर आ रहा है अब
बनाया मोम से पत्थर जिसे मैंने
मेरी जानिब उछल कर आ रहा है अब
हमेशा की तरह बहुत उम्दा ग़ज़ल और इन शेरों के तो क्या कहने
दिली दाद कबूलें
बड़े साहब ने इक साँचा बनाया है
जिसे देखो पिघल कर आ रहा है अब
ज़रा सा होश खोते ही हुआ जादू
जुबां पर सच निकल कर आ रहा है अब... .
वाह !
इसे कहते हैं ’आज’ की ग़ज़ल. ’आज’ को संतुष्ट करती हुई इस ग़ज़ल के लिए शुक्रिया और अनेकानेक शुभकामनाएँ, आदरणीय खुर्शीद भाई.
आदरणीय खुर्शीद सर, उम्दा ग़ज़ल हुई है
दिल से दाद कुबूल फरमाए.
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