बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
माना मिट जाते हैं अक्षर कलम नहीं मिटती
मारो बम गोली या पत्थर कलम नहीं मिटती
जितने रोड़े आते उतना ज़्यादा चलती है
लुटकर, पिटकर, दबकर, घुटकर कलम नहीं मिटती
इसे मिटाने की कोशिश करते करते इक दिन
मिट जाते हैं सारे ख़ंजर कलम नहीं मिटती
पंडित, मुल्ला और पादरी सब मिट जाते हैं
मिट जाते मज़हब के दफ़्तर कलम नहीं मिटती
जब से कलम हुई पैदा सबने ये देखा है
ख़ुदा मिटा करते हैं अक़्सर कलम नहीं मिटती
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी ,सुन्दर रचना है हार्दिक बधाई आपको !
bahut hi khoobsoorat message aur rachnadharmita ka nirvah kiya hai ..apne ...vaise to comments ko manana aur na manna apka hi sarvadhikar hai aur ikska priyog kar apne apni rachne aur fiqr ko aur mazboot hi kiya hai .....
आदरणीय धर्मेन्द्र जी, ग़ज़ल पर हार्दिक बधाई.... बाकी तो गुनिजन कह ही चुके है.... सादर
गुरुजनों से अनुरोध है की इस संदर्भ में मार्गदर्शन करे...
मित्र धर्मेन्द्र जी...जैसा की मैंने पूर्व में ही कहा कि...आपका भाव मै समझता हूँ..आप जिन बातों का आप तर्क दे रहे है..वह भी एक तरह से ठीक है..पर गौर करें..दफ्तर वह जगह होती है जहा से काम-काज किया जाता है...इस रूप में सम्पूर्ण सृष्टि ईश्वर का घर भी हुयी और दफ्तर भी..इस संदर्भ में सोचिये..दूसरा ख़ुदा एक ही है,पर लिखने हमेशा बहुवचन ही लिखा जाता है..क्युकी वह सर्वस्त्र हैऔर सम्माननीय है !!आप रचना में आमूल-चूल परिवर्तन कर अपना दायित्व निभा सकते है..आगे आपकी मर्जी.
आ० धर्मेन्द्र जी
हम यहाँ विचार साझा करते हैं i द्वन्द नहीं करते i आप अपनी गजल के रचनाकार है i आपु इसे अपने ढंग से प्रतिष्ठित कर सकते है i पर जब तक रचना में 'साधारणीकरण ' नहीं होगा आपकी स्थापना सर्वग्राह्य नहीं होगी i हमारे जो विचार है उनसे आप सहमत और असहमत होने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र है i पर यह हमेशा याद रखे यहाँ हम सब एक दूसरे के अनुज है या अग्रज है i समरसता बनी रहनी चाहिए i ससम्मान i
आदरणीय धर्मेन्द्र सिंह जी इस खूबसूरत ग़ज़ल की प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई। बहुत ही खूबसूरत अशआर बने हैं। भ्रम की स्थिति को आपने पूर्व स्पष्ट कर दिया है। पुनः हार्दिक बधाई।
Bahut Bahut shukriya janab.
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