मैं एक कवि हूँ
मुझे प्रेम है
पहाडों से
नदी से
सागर में उठती हुयी लहरों से
गिरते हुये झरनों से
सुन्दर सुन्दर फूलों
की महक से
मीठी मीठी
पंछियों की चहक से
मैं एक कवि हूँ
मुझे प्रेम है
बंजड हुये उस पेड से
जिसने कभी छाया दी थी
फल दिये
मुझे प्रेम है
उन तेज नुकीले काँटे से
जिसने खुद को सुखाकर
फूल को खिलाया
मुझे जितना सुख से प्रेम है
उतना ही प्रेम दुख से है
तुम कहती हो
मैं प्रेमी नहीं हो सकता
क्योंकि मैं कवि हूँ
ये कैसी व्याख्या है
तुम्हारी प्रेम की
एक कवि जो प्रकृति की
बनायी हुयी हरेक रचना में
प्रेम की तलाश करता है
प्रकृति की हर रचना से
प्रेम करता है
वो प्रेमी नहीं हो सकता है
बडी ही उलझी हुयी है
तुम्हारी प्रेम की परिभाषा
या फिर
उलझी हुयी है मेरी प्रेम कहानी
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
krishna mishra 'jaan'gorakhpuri जी आपको रचना पसन्द आई बहुत शुक्रिया
आदरणीय उमेश कटारा जी ,बडी ही उलझी हुयी है
तुम्हारी प्रेम की परिभाषा
या फिर
उलझी हुयी है मेरी प्रेम कहानी....सुन्दर रचना ! बधाई प्रेषित .
सुन्दर कविता के लिए साधुवाद!!आ० उमेश जी
maharshi tripathi जी आपको रचना पसन्द आई बहुत शुक्रिया
डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी आपको रचना पसन्द आई बहुत शुक्रिया
एक कवि जो प्रकृति की
बनायी हुयी हरेक रचना में
प्रेम की तलाश करता है
प्रकृति की हर रचना से
प्रेम करता है ,,,,,,,,,,,,वाह !!कवि की सही पहचान आपको हार्दिक बधाई |
ये कैसी व्याख्या है
तुम्हारी प्रेम की
एक कवि जो प्रकृति की
बनायी हुयी हरेक रचना में
प्रेम की तलाश करता है
प्रकृति की हर रचना से
प्रेम करता है
वो प्रेमी नहीं हो सकता है------------------बहुत सुन्दर ------कटारा जी
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