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दुर्दिनों ने आँख का जब यार जाला हर लिया
तब दिखा है मयकशी ने इक शिवाला हर लिया
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बाँटती थी कल तलक तो वो बहुत ही जोर दे
राह ने किस बात से अब पाँव छाला हर लिया
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था सरीफों के लिए वो राह से भटकें नहीं
कोतवालो चोर से पहले ही ताला हर लिया
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टोकता है कौन दिन को दे उजाला कुछ उसे
रात के हिस्से का जिसने सब उजाला हर लिया
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था पुराना ही सही पर मान रखता था तनिक
आप की इस खींचतानी ने दुशाला हर लिया
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माँ खिला लेती थी जूठन बाप गुजरे बाद भी
साहुकारों की हवस ने पर निवाला हर लिया
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’
Comment
आ0 भाई हरिप्रकाश जी उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार .
आ0 भाई मिथिलेश जी , आपको ग़ज़ल अच्छी लगी लेखन सार्थक हुआ . अनुमोदन के लिए हार्दिक धन्यवाद .
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी बहुत प्रभावशाली रचना है, साधुवाद ! सादर
था पुराना ही सही पर मान रखता था तनिक
आप की इस खींचतानी ने दुशाला हर लिया...सुन्दर
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल के लिए दिल से दाद हाज़िर है -
दुर्दिनों ने आँख का जब यार जाला हर लिया
तब दिखा है मयकशी ने इक शिवाला हर लिया... वाह
था पुराना ही सही पर मान रखता था तनिक
आप की इस खींचतानी ने दुशाला हर लिया... उम्दा
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