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हटाये जो काँटे तो रास्ते सुधरते गये
दुआएँ समझ कर हम झोलियों में भरते गये
कदम दर कदम जिस जिस मोड़ से गुजरते गये
बने तल्ख़ियों के घर टूटते बिखरते गये
खुदा जाने कैसे किस कांच के बने थे अजब
दरकते रहे पत्थर आईने सँवरते गये
दबाता रहा हमको झूठ आजमाता रहा
सदा सच पकड़ हम हालात से उबरते गये
ज़माना कसौटी पे रात दिन परखता रहा
तपे रोज जितना हम और भी निखरते गये
चुकाई कई कीमत राह से न लौटे कदम
चमकते गए जितना यारों को अखरते गये
खुला आसमां हमको रात दिन बुलाता रहा
सदा होंसले जीते भेद भाव मरते गये
चली तंज़ की लातादाद सब हवाएँ मगर
नई कोंपलें फूटी पात पात झरते गये
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
हटाये जो काँटे तो रास्ते सुधरते गये दुआएँ समझ कर हम झोलियों में भरते गये.............. बहुत ही सुंदर कहा आप ने दी
आ0 राजेश दीदी , महिला दीवश की हार्दिक शुभ कामनाएँ . इस अवसर के उपयुक्तग़ज़ल के लिए कोटि कोटि बधाई .
आदरणीया राजेश कुमारी जी, बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल है ,प्रेरणादायक पंक्तियाँ हैं
दबाता रहा हमको झूठ आजमाता रहा
सदा सच पकड़ हम हालात से उबरते गये
ज़माना कसौटी पे रात दिन परखता रहा
तपे रोज जितना हम और भी निखरते गये...हार्दिक बधाई आपको इस रचना पर ! सादर
खुदा जाने कैसे किस कांच के बने थे अजब
दरकते रहे पत्थर आईने सँवरते गये
ज़माना कसौटी पे रात दिन परखता रहा
तपे रोज जितना हम और भी निखरते गये -- आदरणीया राजेश जी , बढिया गज़ल के इन दो अश आर के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।
आदरणीया राजेश दीदी बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई
मतला बहुत अच्छा हुआ है... ये कमाल के अशआर हुए है-
खुदा जाने कैसे किस कांच के बने थे अजब
दरकते रहे पत्थर आईने सँवरते गये
दबाता रहा हमको झूठ आजमाता रहा
सदा सच पकड़ हम हालात से उबरते गये
ज़माना कसौटी पे रात दिन परखता रहा
तपे रोज जितना हम और भी निखरते गये.... वाह
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