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बला-ए-इश्क़ ‘’जान गोरखपुरी’’

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

कुम्हलाए हम तो जैसे सजर से पात झड़ जायें

यु दिल वीरां कि बिन तेरे चमन कोई उजड़ जायें

मिरी आव़ाज में है अब चहक उसके आ जाने की
सितारों आ गले लूँ लगा कि हम तुम अब बिछड़ जायें

कि बरसों बाद मिलके आज छोड़ो शर्म एहतियात
लबों से कह यु दो के अब लबों से आ के लड़ जायें

न मारे मौत ना जींस्त उबारे या ख़ुदा खैराँ
बला-ए-इश्क़ पीछे जिस किसी के हाय पड़ जायें

बना डाला ग़मों के साहिलों ने ‘’जान’’ को दरिया
रस्ता पर्वत दिए जाये अगर हम राह अड़ जायें

‘’मौलिक व् अप्रकाशित’’

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 9, 2015 at 1:11pm

प्रिय  कृष्ण

गजल अच्छी है  i मात्रा को फिर देख ले i सस्नेह i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 9, 2015 at 10:29am
आदरणीय कृष्ण मिश्रा भाई जी मधुर बह्र में सुन्दर प्रयास हुआ है । बधाई। पूरी ग़ज़ल एक बार पुनः तकतीअ अवश्य कर ले। बहुत से मिसरे बेबह्र हो गए है।
Comment by somesh kumar on March 9, 2015 at 9:20am

कि बरसों बाद मिलके आज छोड़ो शर्म एहतियात
लबों से कह यु दो के अब लबों से आ के लड़ जायें

वाह !वाह ! वाह !

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 8, 2015 at 10:33pm

बहुत बहुत शुक्रिया आ० प्रतिभा tripathi ज़ी!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 8, 2015 at 10:32pm

आपकी हौसलाफजाई ने मुझे संबल दिया है!बहुत बहुत आभार आदरणीय Dr. Vijai Shanker जी

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 8, 2015 at 10:00pm
बना डाला ग़मों के साहिलों ने ‘’जान’’ को दरिया
रस्ता पर्वत दिए जाये अगर हम राह अड़ जायें
दमदार प्रस्तुति आदरणीय कृष्ण कुमार जी , बधाई, सादर।

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