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बातो के लच्छे लाये
यारो दिन अच्छे लाये
भारत को फिर से तुमने
दिन में नक्षत्र दिखाये
संसार पसारे आँचल
तुमने बहु नाच नचाये
पहले नजरे की ऊंची
अब फिरते आँख चुराये
हम अपना दर्द सुनाते
तुम अपनी जाते गाये
दूरागत ढोल सुहाने
जब जाना तब पछताये
थे रंक, बनाया राजा
तुम हम पर ही गुर्राये
ईश्वर देखेगा तुमको
हम नत है आँख झुकाये
उतरेगा यह भी इक दिन
जो परचम हो लहराये
सत्ता मिटती है उसकी
जिसको माँ याद न आये
सोया है जिन्न यहाँ पर
जन-तंत्र न यह जग जाए
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
काहें हो.. काहें खिसियाये हैं ? ..
ई कहाँ लिखा है जे कवी-सायर को जेतना खीस बरा रहेगा ओतने ऊ नीमन (अच्छा) कवी-सायर होगा ?
साहेब गजलियाइयेगा कि खिसियाइयेगा ?
जय होऽऽ .. :-)))
बधाई, आदरणीय. किन्तु, प्रवाह को और साधने की आवश्यकता है.
छोटी बह्र में बहुत अच्छी गज़ल कही है , बधाइयाँ आपको ।
आ० हरि प्रकाश जी
आपका सादर आभार .
आ० विजय सर !
आपका आशीष मिलता रहे . सादर .
आ० वर्मा जी
सादर आभार .
आ० मठपाल जी
आ आपका हार्दिक आभार .
आ० अनुज भंडारी जी
आपका समर्थन पाकर मई धन्य हुआ . सादर.
आदरणीय डॉक्टर गोपाल सर ,बेहतरीन रचना की प्रस्तुति के लिये बधाई !
/भारत को फिर से तुमने
दिन में नक्षत्र दिखाये/...
/संसार पसारे आँचल
तुमने बहु नाच नचाये/
/थे रंक, बनाया राजा
तुम हम पर ही गुर्राये/
बहुत ही बढ़िया अनेको सन्देश देती हुई आपकी लाजवाब रचना ! सादर
इस लाजवाब, उम्दा ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई सादर |
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