अमीर खुसरो की रचना
जिहाल-ए-मिस्कीं मकुन तगाफुल, दुराय नैना बनाय बतियाँ।
कि ताबे हिज्राँ, न दारम ऐ जाँ, न लेहु काहे लगाय छतियाँ।।
शबाने हिज्राँ दराज चूँ जुल्फ बरोजे वसलत चूँ उम्र कोताह।
सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ।
यकायक अज़दिल दू चश्मे जादू बसद फरेबम बवुर्द तस्कीं।
किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियाँ
चूँ शम्आ सोजाँ, चूँ जर्रा हैराँ, हमेशा गिरियाँ ब इश्के आँ माह।
न नींद नैंना, न अंग चैना, न आप आये न भेजे पतियाँ।।
बहक्के रोजे विसाले दिलबर के दाद मारा फरेब खुसरो।
सपीत मन के दराये राखूँ जो जाय पाऊँ पिया की खतियाँ।।
या दुराय राखो समेत साजन जो करने पाऊँ दो बोल-बतियाँ।
भावानुवाद
मुझे देख न हिकारत से तबाही पर सुजान धना
चुरा तू न नजरे मुझसे मधुर बातें सनम न बना
इस कदर चूर-चूर हुआ विरह से यह वपुष मेरा
नहीं देती मधुर तू क्यों मुझे सजनि परिरम्भ घना
विरह की रात की मानिंद हैं लम्बे चिकुर तेरे
बड़े छोटे मिलन के पल यहाँ जीना तमाम मना
कटे कैसे सखी विकट यह जो काली अमा रैना
जब तक नही निरख लेता वह मुख-मयंक अभ्र छना
वह विलोचन मदिर अवलोक जादू सा नशा छाया
हुयी मेरी यह दशा काम ने जो लहक बाण हना
बताये कौन जाकर अब दशा जो है दिवाने की
जला उर वर्तिका सा लोम-प्रतिलोम सब ज्योतिकना
नहा जल-इश्क में आभास यायावर लिये मन में
पड़े कल न तन में पाती न आवे नीद ही नयना
फरेब किया चढ़ा जादू तड़पता मीन सा हूँ मैं
छिपा लूं मै सकल पीड़ा मिलन हो अगर प्रीति-सना
पिया से बोल दो बोलूँ अगर संयोग हो पाये
छिपा लूं फिर उसे सबसे हृदय का यह वितान तना
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय! saurabh pandey जी सर जी आपसे मै पूर्णतया सहमत हूँ मेरा शब्दज्ञान ही मुलायम है! :-):-)
भइया कृष्ण मिश्रा जान गोरखपुरीजी, कठिन शब्द नहीं होते बल्कि हमारा शब्द-ज्ञान मुलायम होता है.
वैेसे आपका सुझाव रोचक है.
:-))
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी आपके अथक परिश्रम को नमन!! भावानुवाद पर बधाईयां! पर आ० इतने कठिन हिंदी के शब्द आपने प्रयोग किये है कि मेरे जैसे नवाभ्यासी के लिए तो दोनों रचनाये एक प्रकार से बराबर ही हो जा रहीं है! कृपया कठिन शब्दों के अर्थ भी साथ में दिया करें!!सादर!
आदरणीय राजेश कुमारी जी
आपका स्नेह पाकर अभिभूत हूँ . सादर.
आ० डॉ० गोपाल जी,आपकी इस प्रस्तुति पर पँहुचने में देर हुई क्षमा चाहती हूँ बस ये कहना चाहूँगी कि हिंदी साहित्य की हर विधा पर प्रयास करने एवं श्रम करने के आपके जज्बे को नमन करती हूँ वैसे आपकी हर रचना से मैं शुरू से ही प्रभावित हुई हूँ और सबसे ज्यादा उस वक़्त जब आपने मेरी पुस्तक काव्य्कलश की अद्दभुत समीक्षा की थी उसे जो भी पढता है आपके लेखन कौशल्य का सम्मान करता है ,वही बात इस रचना को लेकर कहूँगी आपके उसी जज्बे को सलाम करुँगी ,खाने में भी जब हम भी कोई नई डिश बनाते हैं तो एक दो बार तो जरूर गड़बड़ होती ही है ,,इस रचना पर आ० सौरभ जी ने और गिरिराज जी ने बहुत सी बातें स्पष्ट कर दी हैं सो दुहराने की आवश्यकता नहीं हैं फिर भी मेहनत और प्रयास की द्रष्टि से बधाई के हक़दार तो आप हैं ही सादर|
आदरणीय सौरभ जी
आपने अपनी बातो से निशब्द कर दिया और गुमनाम जी भी निशब्द ही हुए होंगे . सादर .
आ० विजय सर !
आपका कथन बिलकुल सही है . भावानुवाद सचमुच आसान नहीं है . मैंने शुरुआत एक कठिंन रचना से की और फिर कविता और गजल के बीच कन्फ्यूज हो गया इ आशा हाँ भविष्य में कुछ और बेहतर कर सकूंगा इ सादर .
आ० हरिप्रकाश जी
आपके शब्दों से राहत महसूस हुयी . कम से कम श्रम को मान्यता मिली इ पर इस रचना से मैं भी संतुष्ट नहीं हूँ . अनुवाद इससे बेहतर हो सकता था यदि मैं कविता के बाद उसे गजल में न ढालता .सादर .
भाई गुमनामजी,
यह मंच ’सीखने-सिखाने’ की परम्परा का वाहक है. आप ग़ज़ल विधा के मूलभूत विन्दुओं को जानते हैं. आदरणीय गोपाल नारायनजी की इस प्रस्तुति पर आपसे सापेक्ष सुझाव की अपेक्षा थी. उसके स्थान पर आप द्वारा की गयी प्रशंसा जुगुप्साकारी व्यंग्य की तरह प्रतीत हुई है.
आप मेरी मनोदशा को समझने का प्रयास कीजियेगा.
सादर भाईजी.
//आपका प्रोत्साहन पाकर हैरान हूँ .इस गजल से मई भी संतुष्ट नहीं न इ पर आपका प्यार स्वीकार //
आदरणीय गोपाल नारायनजी,
भाई गुमनाम जी, जो कि स्वयं ग़ज़ल के गंभीर अभ्यासी हैं, की ’प्रशंसा’ पर आपकी स्पष्टता आपके समृद्ध मनस और नीर-क्षीर विवेक का परिचायक है. आपकी इसी प्रखरता का सदा से मैं हृदयतल से सम्मान करता रहा हूँ. यही कारण है कि आपसे हमारी अपेक्षाएँ भी सदा से बड़ी रही हैं. आप विशद अनुभवी हैं, आदरणीय. विद्वान हैं. गहन अध्ययन है आपका. इन विन्दुओं के आलोक में कहूँ तो आपका कोई प्रयास भले ही नयी विधा या नये साहित्यिक क्षेत्र में क्यों न हो, आपकी गरिमामय उपस्थिति की अपेक्षा रहती है.
यथार्थ यही है, आदरणीय, हमसभी इस मंच की पैदाइश हैं. अधिक दिन नहीं हुए, हमसभी की साहित्यिक भाषा तोतली थी. किन्तु इस मंच पर आपसी सान्निध्य और अपने सतत अभ्यास से हम सुधीपाठकों की अपेक्षाओं पर निरंतरता के साथ सहजता से उतरते आ रहे हैं. किन्तु हमारे सीखने का क्रम अनवरत है.
हम किसी नये विधान पर कोई नया रचनाकार्य करें, हमारी असहज कोशिश नये हस्ताक्षरों के समकक्ष होती हुई भी, उस तौर पर कत्तई नहीं ली जायेगी. इसका कारण यह है कि हम अन्य क्षेत्रों में एकदम नये हैं ही नहीं. इस भाव को सदा ध्यान में रखना हमारी विवशता भी है और यही हमारी गरिमा भी है. यही कारण है, आदरणीय, कि मेरी पिछली टिप्पणी इतनी क्लिष्ट एवं कर्कश थी.
सादर क्षमा प्रार्थी हूँ.
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