आँगन के ऊपर बना ,सरिया का आकाश
दाना नीचे है पड़ा खा पाती मैं काश ॥
अंबर पर उड़ते मिले ,चतुर सयाने बाज
जीवन कितना है कठिन ,हम जैसों का आज ॥
सूरज दादा भी तपें ,करें गज़ब का खेल
सूख गए वन बावड़ी,बची न कोई बेल ॥
एक दिवस में क्या मिले,कैसे रखलूँ धीर
सोच सोच ये बात को,मन में उठती पीर ॥
मन करता है आज भी,आँगन फुदकूँ जाय
झूला झूलूँ तार पर......मुन्नी लख हर्षाय ॥
अप्रकाशित व मौलिक
कल्पना मिश्रा बाजपेई
Comment
आदरणीय vijay nikore सर आप का हार्दिक आभार /सादर
बहुत ही सुन्दर दोहे। बधाई।
आदरणीया कल्पना जी बहुत सुन्दर दोहावली हुई है. गौरैया के बहाने से कुछ विशिष्ट बातें साझा हुई है. इस सार्थक दोहावली के लिए बहुत बहुत बधाई .
इस दोहे में कमाल की व्यापकता है
एक दिवस में क्या मिले,कैसे रखलूँ धीर
सोच सोच ये बात को,मन में उठती पीर ॥
सोच सोच ये बात को के स्थान पर सोच सोच इस बात को किया जाये तो कैसा रहेगा. मेरे निवेदन पर विचारिएगा. सादर
आ0 Hari Prakash Dubey जी आप का आभार /सादर
आदरणीया कल्पना मिश्रा जी ,सुन्दर दोहे ,सुन्दर रचना ,हार्दिक बधाई आपको ! सादर
एक दिवस में क्या मिले,कैसे रखलूँ धीर
सोच सोच ये बात को,मन में उठती पीर ॥....बहुत सुन्दर
आ० Er. Ganesh Jee "Bagi" सर हार्दिक आभार /सादर
आदरणीया कल्पना जी, सभी दोहें एक से बढ़कर एक लगें, एक दोहा कोट करना चाहूँगा जिसका विस्तार बहुत ही व्यापक है, बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर.
एक दिवस में क्या मिले,कैसे रखलूँ धीर
सोच सोच ये बात को,मन में उठती पीर ॥
आ० maharshi tripathi जी आभार आप का
आ० Shyam Narain Verma सर आभार आप का
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर मांफ़ी चाहती हूँ ./
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