आँगन के ऊपर बना ,सरिया का आकाश
दाना नीचे है पड़ा खा पाती मैं काश ॥
अंबर पर उड़ते मिले ,चतुर सयाने बाज
जीवन कितना है कठिन ,हम जैसों का आज ॥
सूरज दादा भी तपें ,करें गज़ब का खेल
सूख गए वन बावड़ी,बची न कोई बेल ॥
एक दिवस में क्या मिले,कैसे रखलूँ धीर
सोच सोच ये बात को,मन में उठती पीर ॥
मन करता है आज भी,आँगन फुदकूँ जाय
झूला झूलूँ तार पर......मुन्नी लख हर्षाय ॥
अप्रकाशित व मौलिक
कल्पना मिश्रा बाजपेई
Comment
मन करता है आज भी,आँगन फुदकूँ जाय
झूला झूलूँ तार पर......मुन्नी लख हर्षाय ॥,,बहुत सुन्दर आ.कल्पना मिश्रा बाजपेई ,,बधाई आपको |
सुंदर भाव से संजोयी रचना पर बधाई स्वीकारें |
आ० कल्पना जी
सुधार लग रहा है.
१- दाना की जगह दना टाइप हो गया है .
२- सुजान अच्छे सन्दर्भ में लिया जाता है यहाँ 'सयाने' कहना उचित होगा .
३- बोलो अब कैसे जिऊँ,कहाँ बिताऊँ आज ॥----यह पंक्ति शुद्ध नहीं है --- ऐसा कर सकते हैं --- जीवन कितना कठिन है हम जैसो का आज
सादर .
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