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गौरैया दिवस पर कुछ दोहे

आँगन के ऊपर बना ,सरिया का आकाश
दाना नीचे है पड़ा खा पाती मैं काश ॥

अंबर पर उड़ते मिले ,चतुर सयाने बाज
जीवन कितना है कठिन ,हम जैसों का आज ॥ 

सूरज दादा भी तपें ,करें गज़ब का खेल
सूख गए वन बावड़ी,बची न कोई बेल ॥

एक दिवस में क्या मिले,कैसे रखलूँ धीर
सोच सोच ये बात को,मन में उठती पीर ॥

मन करता है आज भी,आँगन फुदकूँ जाय
झूला झूलूँ तार पर......मुन्नी लख हर्षाय ॥

अप्रकाशित व मौलिक 

कल्पना मिश्रा बाजपेई 

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Comment by maharshi tripathi on March 21, 2015 at 5:16pm

मन करता है आज भी,आँगन फुदकूँ जाय 
झूला झूलूँ तार पर......मुन्नी लख हर्षाय ॥,,बहुत सुन्दर आ.कल्पना मिश्रा बाजपेई  ,,बधाई आपको |

Comment by Shyam Narain Verma on March 21, 2015 at 4:18pm
सुंदर भाव से संजोयी रचना पर बधाई स्वीकारें
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 21, 2015 at 1:44pm

आ० कल्पना जी

सुधार लग रहा है. 

१-  दाना की  जगह दना  टाइप हो गया है .

२- सुजान अच्छे सन्दर्भ में लिया जाता है यहाँ 'सयाने' कहना उचित होगा .

३- बोलो अब कैसे जिऊँ,कहाँ बिताऊँ आज ॥----यह पंक्ति शुद्ध नहीं है --- ऐसा कर सकते हैं --- जीवन कितना कठिन है  हम जैसो का आज

सादर .

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