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इक मुसाफिर राह में सिन्दूर से नहला गया (ग़ज़ल "राज")

2122  2122  2122  212

मोतियों को गूंथकर धागा सदा हँसता गया

जंग खाये रास्तों को कांरवाँ चमका गया

 

ओस से भीगे बदन पर थी नजर खुर्शीद की

प्यास उसकी खुद बुझाकर फूल इक खिलता गया

 

बन गये अफ़साने कितने और नगमें जी उठे 

जब जमीं ने सर उठाया आसमां झुकता गया

 

कहकशाँ में यूँ नहाई चाँदनी जल्वानशीं

नूर उसका देखकर महताब भी पथरा गया

 

हुस्न की मलिका कली की देख वो अँगड़ाइयां  

चूम कर  रुख्सार उसके दफअतन भँवरा गया

 

फिर तबस्सुम जिन्दगी के शुष्क लब पर आ गई

कनखियों से देखता जब अब्र का टुकड़ा गया

 

जी उठी फिर वादियों में वो मुहब्बत की ग़ज़ल

इक परिंदा जब तरन्नुम में उसे गाता गया

 

जुगनुओं की बज्म से जब रात घर वापस चली

इक मुसाफिर राह में सिन्दूर से नहला गया

 

झील में उगता सवेरा जाल में मछली फँसी

बढ़ गई चहरों की रंगत घर में जब झोला गया 

 

कुलबुलाती भूख की वो चहचहाहट थम गई 

वालिदा की चोंच से जब पेट में दाना गया

 

'राज'  कुदरत भी अछूती है न मानव स्वार्थ से   

हर करिश्मा तो नफ़ा नुक्सान में तोला गया 

(मौलिक एवं अप्रकाशित) 

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Comment by Shyam Narain Verma on March 23, 2015 at 1:18pm
क्या खूब ग़ज़ल कही है आपने वाह बहुत बहुत बधाई इस बेहतरीन रचना के लिये
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 23, 2015 at 1:03pm

फिर तबस्सुम जिन्दगी के शुष्क लब पर आ गई

कनखियों से देखता जब अब्र का टुकड़ा गया

आदरणीया दीदी , बहुत अच्छी गजल . सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 23, 2015 at 12:56pm

आ० मुकेश श्रीवास्तव जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ आपने वो शेर कोट किया जो मुझे खुद भी बहुत प्रिय है 

तहे दिल से आभार आपका .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 23, 2015 at 12:55pm

आ० धर्मेन्द्र जी ,जब कोई ग़ज़लकार ग़ज़ल पर दाद देता है तो ग़ज़ल  के प्रति आश्वस्तता और संतुष्टि मिलती है वाही इस वक़्त महसूस कर रही हूँ दिल से आभार आपका |

Comment by MUKESH SRIVASTAVA on March 23, 2015 at 11:58am

 

कुलबुलाती भूख की वो चहचहाहट थम गई 

वालिदा की चोंच से जब पेट में दाना गया - PYAREE RACHNAA BHAEE JEE  - BADHAAEE

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 23, 2015 at 11:35am
अच्छे अश’आर हुए हैं आ. राजेश कुमारी जी, दाद कुबूल करें

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 23, 2015 at 9:17am

मिथिलेश भैय्या ,ग़ज़ल पर शेर दर शेर समीक्षा से अभिभूत हूँ ,आपके सुझाव स्वागत योग्य हैं उला में दूसरे 'बन गए' का विकल्प सोचूंगी 

दूसरे सुझाव के अनुसार उला  में की की जगह 'में' उत्तम रहेगा किन्तु सानी वैसा ही रखूंगी क्यूंकि ग़ज़ल शब्द का दुहराव ठीक न होगा 

मकते में तख़ल्लुस जोड़ना बहुत बेहतरीन सुझाव है | आपका तहे दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 23, 2015 at 9:08am

आ० हरिप्रकाश दूबे जी ,आपकी प्रोत्साहित प्रतिक्रिया ने मेरे लेखन को सार्थक किया मेरी लेखनी को नव ऊर्जा प्रदान की दिली शुक्रिया |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 23, 2015 at 9:06am

गुमनाम पिथैरा गढ़ी जी,आपको ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से शुक्रिया आपका . 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 23, 2015 at 9:05am

निर्मल नदीम जी ,ग़ज़ल पर आप जैसे ग़ज़लकार की दाद मिली ग़ज़ल स्वतः सार्थक  हुई तहे दिल से आभारी हूँ |

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