बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२
ज़ुल्फ़ का घन घुमड़ता रहा रात भर
बिजलियों से मैं लड़ता रहा रात भर
घाव ठंडी हवाओं से दिनभर मिले
जिस्म तेरा चुपड़ता रहा रात भर
जिस्म पर तेरे हीरे चमकते रहे
मैं भी जुगनू पकड़ता रहा रात भर
पी लबों से, गिरा तेरे आगोश में
मुझ पे संयम बिगड़ता रहा रात भर
जिस भी दिन तुझसे अनबन हुई जान-ए-जाँ
आ के ख़ुद से झगड़ता रहा रात भर
---------
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरनीय धर्मेन्द्र जी ..इस ग़ज़ल को गुनगुनाने में बहुत मज़ा आया ..शानदार इस रचना के लिए हार्दिक बढ़ाए स्वीकार करें सादर
.
जिस भी दिन तुझसे अनबन हुई जान-ए-जाँ
आ के ख़ुद से झगड़ता रहा रात भर..... बधाई
जिस्म पर तेरे हीरे चमकते रहे
मैं भी जुगनू पकड़ता रहा रात भर
पी लबों से, गिरा तेरे आगोश में
मुझ पे संयम बिगड़ता रहा रात भर
जिस भी दिन तुझसे अनबन हुई जान-ए-जाँ
आ के ख़ुद से झगड़ता रहा रात भर ----- क्या बात है , आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , खूबसूरत ग़ज़ल हुई है , आपको दिली बधाइयाँ ।
जिस भी दिन तुझसे अनबन हुई जान-ए-जाँ
आ के ख़ुद से झगड़ता रहा रात भर
बहुत ज़मीनी बात कह दी आपने ,आनन्द ही आनन्द !
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