१२२२/१२२२/१२२
किसी की आँख का क़तरा नहीं हूँ
ग़ज़ल में हूँ मगर मिसरा नहीं हूँ.
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न जाने क्या करूँगा ज़िन्दगी भर
तेरे सदमे से मैं उबरा नहीं हूँ.
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अना से आपकी टकरा गया था
मैं टूटा हूँ मगर बिखरा नहीं हूँ.
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खुदाया हश्र पर नरमी दिखाना
मैं काफ़िर हूँ प् ना-शुक्रा नहीं हूँ.
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सफ़र में हूँ, कोई सूरज हो जैसे
कहीं भी एक पल ठहरा नहीं हूँ.
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तराशेगी मुझे कुछ और क़िस्मत
अभी पूरी तरह निखरा नहीं हूँ.
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सुखाती हैं नमी दिल की, हवाएँ
समंदर हूँ मगर गहरा नहीं हूँ.
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मैं पूरी तौर पे बिगड़ा नहीं था
मैं पूरी तौर पे सुधरा नहीं हूँ.
..
मैं सुनता हूँ तेरी हर एक धड़कन
मेरे नादान दिल! बहरा नहीं हूँ.
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बताऊँ ख़ामियाँ कैसे मैं तेरी
मैं अपने आप से गुज़रा नहीं हूँ.
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भिगो दूँ आ तुझे बाहों में लेकर
बरसता अब्र हूँ सहरा नहीं हूँ.
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नूर
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. लक्ष्मण जी
वाह ! क्या कहने आ0 नीलेश भाई , कोटि कोटि बधाई .
शुक्रिया आ. हरी प्रकाश जी ...अभी मत थकिये...इससे मुझे हौसला मिलता है
आदरणीय निलेश जी , अब तो बधाई देते देते थक गया हूँ , पर फिर से लीजिये इस शानदार रचना पर ! हा हा ..सादर
शुक्रिया शिज्जू भाई
आपकी जितनी ग़ज़लें पढ़ता हूँ उतनी शिद्दत से आपका फैन होता जाता हूँ बेहतरीन ग़ज़ल है किस शे'र को बेहतर कहूँ हर शे'र पर बस वाह वाह है निलेश भाई हर शे'र के लिए दाद हाज़िर है
शुक्रिया आ. डॉ. साहब. आप जैसे विचारवान लेखक से दाद मिलने से अभिभूत हूँ
सादर
शुक्रिया आ. वंदना जी
शुक्रिया आ. श्याम जी
आदरणीय नूर जी
अब जब गजल में हाथ पैर आजमा रहा हूँ तो इसकी गहराई कुछ जादा ही समझ में आरही है . आप तो शिखर पर है . आपके शेरो में सम्पूर्णता देखने को मिलती है . हर शेर बाकमाल .
मैं पूरी तौर पे बिगड़ा नहीं था
मैं पूरी तौर पे सुधरा नहीं हूँ.
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