22/22/22/22 (सभी संभव कॉम्बीनेशंस)
यादो के जब पहलू निकले
जंगल जंगल आहू निकले. आहू-हिरण
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काजल रात घटाएँ गेसू
उसके काले जादू निकले.
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जज़्बातों को रोक रखा था
देख तुझे, बे-काबू निकले.
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चाँद मेरी पलकों से फिसला
आँखों से जब आँसू निकले.
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तेरे ग़म में जब भी डूबा,
मयखानों के टापू निकले.
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भीग गया धरती का आँचल
अब मिट्टी से ख़ुशबू निकले.
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तौल रहे थे मेरी हस्ती
मेरे यार तराज़ू निकले.
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रात हवेली फिर रौशन थी
बोतल निकली काजू निकले.
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बात चली जब इन्कलाब की
तुम सरकारी बाबू निकले.
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हमें रिझाने इन्तिख़ाब में
हिटलर और हलाकू निकले.
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“नूर” अँधेरे से लड़ने को
कुछ मतवाले जुगनू निकले.
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नूर
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
धन्यवाद आ. वर्मा जी ..
शुक्रिया जनाब समर कबीर साहब. आप से दाद पाकर अभिभूत हूँ
"क्या बात है ..... बहुत खूब ... बधाई आप को " |
धन्यवाद डॉ विजयशंकर जी
धन्यवाद मिथिलेश जी
धन्यवाद दिनेश जी
शुक्रिया आ. डॉ श्रीवास्तव साहब
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