२१२२ २१२२ २१२१२
जो न सोचा था कभी,वो भी किया किये
हम सनम तेरे लिये,मर-मर जिया किये
***
तेरी आँखों से पी के आई जवानियाँ
दम निकलता गो रहा पर हम पिया किये
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आँख हरपल राह तकतीं ही रही सनम..
फर्श पलकों को किये,दिल को दिया किये
***
आदतन हम कुछ किसी से मांग ना सके
और हिस्से जो लगा वो भी दिया किये
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जख्म को अपने कभी मरहम न मिल सका
गैर के जख्मों को हम तो बस सिया किये
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मौलिक व् अप्रकाशित (c) ‘जान’ गोरखपुरी
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Comment
प्रिय मिश्र
आपने काफिया अपने माफिक नहीं चुना . आपको 'दिया किये' दो बार लाना पड़ा . वह भी व्याकरण सम्मत नहीं . चौथे शेर में फिर वही
सके और किये में लाज्तमा -ए-जुज्ब- ए -रदीफैंन दोष . यह सब गजल का मजा किरकिरा कर देता है . आपकी अगली गजल का इन्तेजार रहेगा. सस्नेह .
आँख हरपल राह तकतीं ही रही सनम..
फर्श पलकों को किये,दिल को दिया किये....बहूत खूब भाई कृष्ण मिश्र जी ,बड़ा ही गूढ़ शे'र है , बधाई आपको इस सुन्दर रचना पर !
जख्म को अपने कभी मरहम न मिल सका
गैर के जख्मों को हम तो बस सिया किये
.... वाह बहुत ही दिलकश ख्यालों की प्रस्तुति है आपकी आदरणीय , हार्दिक बधाई।
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