चैन से रहते थे कभी
तीन कमरों की छत के साये में
मैं ,मेरे माँ-बाबूजी
मेरी पत्नि
मेरे बच्चे शामिल थे
एक 'हम ' शब्द में ।
धीरे धीँरे
'हम ' शब्द बिखर गया
मा-बाबूजी बाहर वाले
कमरे में भेज दिये गयेे
अब वो दोनों हो गये थे
' हम ' और माँ-बाबूजी
अब हम ' का विस्तार
मैं,मेरी पत्नि,मेरे बच्चों
तक सिमट गया था
माँ -बाबूजी 'और' हो चुके थे ।।
मेरा बेटा भी अब
बाल बच्चेदार हो गया हैे
'हम ' शब्द आतुर है
एक बार फिरसे टूटने बिखरने
मैं -मेरी पत्नि
' और ' होने वाले हैं
मेरे बेटे के परिवार के लिये
मुझे अफसोस नहीं मेरे
और हो जाने का
अफसोस है
बाहर वाले कमरे को
कैसे खाली कराऊँ
माँ-बाबूजी से ।।।
मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा
Comment
आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी आभार
आदरणीय मन को झकझोर देने वाली शानदार रचना ..मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
आदरणीय Mohan Sethi 'इंतज़ार' जी सादर आभार
आदरणीय क्या ख़ूब लिखा है ..सच में दिल तक लगती है ....प्रस्तुति के लिये बधाई ...सादर
आदरणीय ajay sharma जी सादर आभार
wah wah kya baat hai .....bahut ki umda
आदरणीय Shyam Mathpal जी सादर आभार
आदरणीय उमेश कटारा जी ,
कई घरों व दिलों की कहानी.
हार्दिक बधाई.
आदरणीय मिथिलेश वामनकरजी सादर आभार
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी सादर आभार
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