मैंने हमेशा,तुमको
एक शान्त ,स्थिर,
धैर्य चित्त रखते हुये
एक समुद्र की तरह चाहा है
मगर क्या तुमने किया
खुद को नदी की तरह
मुझको समर्पित
कदाचित नहीं ।।
नदी ,समुद्र में कूद जाती है
खुद का अस्तित्व मिटाकर
मगर अमर हो जाती है
समुद्र की मुहब्बत बनकर
हमेशा के लिये
और बहती रहती है
युगों युगों तक समुद्र
के हृदय में ।।
मैं समुद्र हूँ
तुम नदी हो
मैं तुम्हें मनाने भी चला आऊँ
मगर मेरे साथ
तूफान भी चला आयेगा
फिर सिर्फ तबाही होगी
कुछ नहीं होगा चारो
सिवाय विनाश के
समुद्र नदी को लेने आये
ये नियमों के प्रतिकूल है।।
मैं समुद्र की तरह इन्तजार में हूँ
तुम नदी की तरह
खुद का समर्पण कर
समा जाओ हमेशा के लिये
मेरे अन्तस में
पानी संग पानी की तरह मिल जायें
हम सदैव के लिये
कोई अलग न कर सके कभी
लाख चाहकर भी ।।
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय shree suneel रचना को आपका आशीर्वाद मिला शुक्रिया
आदरणीया Shyam Narain Verma रचना को आपका आशीर्वाद मिला शुक्रिया
आदरणीया Dr. Vijai Shanker रचना को आपका आशीर्वाद मिला शुक्रिया
आदरणीय krishna mishra 'jaan'gorakhpuri रचना को आपका स्नेह मिला शुक्रिया
आदरणीया Dr.Prachi Singh रचना को आपका आशीर्वाद मिला शुक्रिया
नदी की सागर के प्रति समर्पित हो जाने का आह्वाहन करते हुए मानवीय संवेदनाओं को व्यक्त करने का सुन्दर प्रयास हुआ है आ० उमेश कटारा जी
बधाई स्वीकारिये
सुन्दर! बधाई आदरणीय!
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय |
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