212---212---212---212 |
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तीरगी सा मैं पसरा रहा रात भर |
दीप मन का भी जलता रहा रात भर |
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पा पटक के गया आज पंछी कोई |
वो शज़र खूब झरता रहा रात भर |
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दिल उजालो की खातिर चरागाँ हुआ |
दम-ब-दम वो पिघलता रहा रात भर |
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फिर नुमाइश में उसका जला पैरहन |
एक दरिया सा बहता रहा रात भर |
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खूब आई, न ठहरी मगर वो सदा |
कोई दीवार होता रहा रात भर |
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उसको आखिर शबे-गम अता हो गई |
आँसुओं से जो डरता रहा रात भर |
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आरज़ू दिल की वैसी न मामूर है |
खुद्नुमाई में पिसता रहा रात भर |
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दश्त ने फिर हवा को जो आवाज दी, |
शाख पे फूल हँसता रहा रात भर |
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आपबीती वो अपनी सुनाता रहा |
सिलसिला गम का चलता रहा रात भर |
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क्या कहे चाँदनी ये तो दस्तूर है |
चाँद क्यूं हाथ मलता रहा रात भर |
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सरजमीं ने गले जब लगाया उसे |
एक पत्थर भी गलता रहा रात भर |
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Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी सराहना हेतु हार्दिक आभार
फिर उजाले की खातिर चरागाँ हुआ
दम.ब.दम कोई मरता रहा रात भर ..... अति सुंदर
फिर नुमाइश हुईए फिर जला पैरहन
एक दरिया सा बहता रहा रात भर .... क्या गहराई है
उसके हिस्से शबे.गम अता हो गए
आँसुओं से जो डरता रहा रात भर क्या कहने
दश्त ने फिर हवा को जो आवाज दीए
फूल शाखों पे हँसता रहा रात भर ..... एक और बेहतरीन शेर
सरजमीं ने उसे जब लगाया गले
आज पत्थर भी गलता रहा रात भर .... ये तो मेरे दिल की बात कह डाली
आ0 भाई मिथिलेश जी इस बेहतरीन गजल के लिए हार्दिक बधाई ।
आदरणीय नीलेश जी, आ. समर कबीर जी एवं आ. गिरिराज सर, आपके मार्गदर्शन अनुसार ग़ज़ल में कुछ सुधार करते हुए प्रयास किया है. आदरणीय वीनस भाई जी के विस्तृत मार्गदर्शन और सुझाव के आधार पर बदलाव किया है. यक़ीनन जल्दबाजी में बहुत कच्ची ग़ज़ल प्रस्तुत की है धीरे धीरे सुधार कर रहा हूँ. अभी जितना समझ आया सुधार रहा हूँ.
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी हार्दिक आभार
आदरणीय जीतेन्द्र जी सराहना हेतु हार्दिक आभार
अच्छे अश’आर हुए हैं आ. मिथिलेश जी, दाद कुबूल करें।
उम्दा गजल प्रस्तुति आदरणीय मिथिलेश जी. मतला बहुत खूबसूरत कहा आपने. दिली बधाई कुबुलियेगा
आदरणीय सुधीजनों का आभार व्यक्त करता हूँ मार्गदर्शन के लिए.
जल्दबाजी में पोस्ट हुई इस ग़ज़ल में कई त्रुटियाँ है जिन्हें सुधारने का प्रयास करता हूँ.
सादर
आदरणीय मिथिलेश भाई , सुन्दर ग़ज़ल हुई है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥
आदरणीय , अगर आप काफिया के इता दोष को मानते हैं तो , आपका मतला खारिज़ हो रहा है , जिससे पूरी ग़ज़ल पर असर पड़ सकता है ॥
लड़ता और जलता से बढ़े हुये हिस्से ता निकाल दे ने से -- लड़ और जल- बच रहा है , जो हम काफिया नहीं हो सकते ॥
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी बेहतरीन ग़ज़ल के लिये बधाई ...हर शेर में दम है ...बहुत ख़ूब ...सादर
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