२२२२/२२२२/२२२
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आँखों को सपनीला होते देखा है
ख़्वाबों को रंगीला होते देखा है.
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क़िस्मत ने भी खेल अजब दिखलाए हैं
पत्थर भी चमकीला होते देखा है.
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सादापन ही कौम की थी पहचान जहाँ
पहनावा भड़कीला होते देखा है.
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मुफ़्त में ये तहज़ीब नहीं हमनें पायी
शहरों को भी टीला होते देखा है.
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कुर्सी की ताक़त है जाने कुछ ऐसी
बूढा, छैल-छबीला होते देखा है.
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आज तुम्हारे होंठो पर नीलापन था
बातों को ज़हरीला होते देखा है.
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वक़्त के हंटर नंगी पीठ पे पड़ते ही,
हर तेवर को ढीला होते देखा है.
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खेत खा गया कंक्रीट का ये जंगल
गाँवों को शहरीला होते देखा है.
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‘नूर’ न पूछो सुर्खी क्यूँ है आँखों में
दो हाथों को पीला होते देखा है.
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नूर
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. सौरभ सर.
इस ग़ज़ल को कुछ समय बाद फिर कहने का प्रयास करूँगा. अभी ख़याल इन्ही ख़यालों के गिर्द मंडरा रहे हैं.
सादर
शुक्रिया दिनेश जी
आपकी बेजोड़ कहन पर वीनस भाई का तबसिरा .. मजा आ गया !
उनके सभी विन्दुओं को आपने अपने संशोधन में नहीं लिया है. लेकिन लेना था. आपके संशोधन को देखने के बाद कह रहा हूँ.
अलबत्ता, वीनस भाई निम्नलिखित शेर की महीनी को नज़रन्दाज़ कर रहे हैं शायद. वर्ना ’शहरों को भी’ के ’भी’ पर प्रश्न न करते..
मुफ़्त में ये तहज़ीब नहीं हमनें पायी
शहरों को भी टीला होते देखा है................. यहाँ भी की क्या ज़रुरत है ?
मेरी समझ से इस ’भी’ का दम ही इस शेर को वो ऊँचाई दे रहा है जिसका वह हक़दार है.
सादर
शुक्रिया आ. धर्मेन्द्र कुमार जी. कमेंट्स में परिष्कृत रूप में उपलब्ध है
सादर
शुक्रिया समर कबीर साहब .. नया वर्शन भी कमेंट्स में है
सादर
शुक्रिया आ. वीनस जी. आपकी इस विस्तृत टिप्पणी ने बहुत मार्गदर्शन किया है. चिन्हित शेर या यूँ कहें कि पूरी ग़ज़ल फिर से कहने की कोशिश की है. साथ ही एक नया शेर भी जोड़ दिया है.
एक निवेदन है कि मेरी अन्य ग़ज़लें भी जाँच लें ..ताकि उनमे भी गुणात्मक सुधार हो सके.
सादर
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आँखों को सपनीला होते देखा है
ख़्वाबों को रंगीला होते देखा है.
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क़िस्मत ने भी खेल अजब दिखलाए हैं
इक पत्थर चमकीला होते देखा है.
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सादापन था लोगों की पहचान, वहां
पहनावा भड़कीला होते देखा है.
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मुफ़्त में ये तहज़ीब नहीं हमनें पायी
कुछ शहरों को टीला होते देखा है.
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कुर्सी की ताक़त पर हमनें बूढ़े को
बाँका छैल-छबीला होते देखा है.
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आज तुम्हारे होंठो पर नीलापन था
बातों को ज़हरीला होते देखा है.
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वक़्त का हंटर नंगी पीठ पे पड़ते ही,
हर तेवर को ढीला होते देखा है.
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बिल्डिंगों को उगते देखा खेतों में
गाँवों को शहरीला होते देखा है.
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बातों ही बातों में हमनें बातों का
नश्तर और नुकीला होते देखा है.
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‘नूर’ न पूछो सुर्खी क्यूँ है आँखों में
दो हाथों को पीला होते देखा है.
आँखों को सपनीला होते देखा है
ख़्वाबों को रंगीला होते देखा है. .... अच्छा कहा भाई क्या कहने
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क़िस्मत ने भी खेल अजब दिखलाए हैं
पत्थर भी चमकीला होते देखा है............ पढने में तो मज़ा दे रहा है .. शेर का कोई विशेष अर्थ हो तो बताएं ... भी की क्या ख़ास ज़रुरत थी जबकि को का इस्तेमाल जियादा मुफ़ीद होता
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सादापन ही कौम की थी पहचान जहाँ
पहनावा भड़कीला होते देखा है..............जहां के साथ वहां की ज़रुरत महसूस होती है ... पूरी कौम के लिए सादापन विशेषण खटकता भी है ... एक व्यक्ति को टार्गेट करते तो बेहतर होता
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मुफ़्त में ये तहज़ीब नहीं हमनें पायी
शहरों को भी टीला होते देखा है................. यहाँ भी की क्या ज़रुरत है ?
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कुर्सी की ताक़त है जाने कुछ ऐसी
बूढा, छैल-छबीला होते देखा है. .... जाने शब्द भर्ती का है को शब्द की नामौजूदगी खटकती है मगर बहर की मजबूरी है ...
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आज तुम्हारे होंठो पर नीलापन था
बातों को ज़हरीला होते देखा है.......... अच्छा शेर कहा है बधाई
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वक़्त के हंटर नंगी पीठ पे पड़ते ही,
हर तेवर को ढीला होते देखा है. अच्छा शेर है ... वक्त के को वक्त का कर लीजिये ... के से हंटर बहुवचन हो जा रहा है अर्थात कई बार पड़े ... मगर आप ही आगे लिखते हैं .. पड़ते ही
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खेत खा गया कंक्रीट का ये जंगल
गाँवों को शहरीला होते देखा है. ... कंक्रीट को कंकरीट पढना कितना सही होगा इस पर विचार करें ... साथ ही जब तक पूरा शेर न पढ़ा जाए पहला मिसरा भ्रमित करता है ... खेत खा गया कंक्रीट के जंगल को अभी ऐसा अर्थ भी निकल रहा है., शहरीला प्रयोग के लिए बधाई
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‘नूर’ न पूछो सुर्खी क्यूँ है आँखों में
दो हाथों को पीला होते देखा है......... बढ़िया कहा
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