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"बापू, हमारे साथ शहर क्यों नहीं चलते ?"
"शहर जा बसेंगे तो खेती कौन करेगा ?"  
"क्या रखा है खेती में ? कभी सूखा फसल को मार जाता है तो कभी बेमौसम बरसात।"
"तुम्हें कैसे समझाऊँ बेटा।"
"खुल कर बताओ बापू, दिल पर कोई बोझ है क्या ?"
"ये अन्नदाता की उपाधि का बोझ है बेटा, तुम नहीं समझोगे ।"      
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(मौलिक एवँ अप्रकाशित)

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 17, 2017 at 10:25pm

"ये अन्नदाता की उपाधि का बोझ है बेटा, तुम नहीं समझोगे ।"      गज़ब आदरणीय सर | एक शशक्त कथा पढने को मिली साधुवाद सर |


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 20, 2015 at 10:56pm

टिप्पणियों पर धन्यवाद देने में हुई देरी के लिए क्षमा मांगते हुए रचना को मान बख्शने हेतु दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ आ० राजेश कुमारी जी, आ० केवल प्रसाद जी, आ० महिमा श्री जी, जीतेन्द्र पस्तरिया जी, आ० डॉ विजय शंकर जी, भाई मिथिलेश वामनकर  जी, आ० कान्ता रॉय जी, आ० विजय निकोर जी, आ० पंकज जोशी जी, आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी, आ० डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी,  आ० गिरिराज भंडारी जी, आ० सौरभ पाण्डेय भाई जी, भाई जान गोरखपुरी जी, आ० मोहन सेठी जी,  आ० श्री सुनील जी। 

Comment by kanta roy on May 24, 2015 at 9:56pm
अन्नदाता की उपाधि का बोझ अब कोई नहीं उठाना चाहता है सर जी ..... आपने अपनी कथा के माध्यम से अन्नदाता का जो गरिमा कायम किये है वो सराहनीय है । इस तरह की सार्थक कथा हमारे कृषि प्रधान देश में किसान की गरिमा वापस लाने मे सहायक होगी । इस कथा को इतना सशक्त कि एक बार स्वंय को किसान होने पर अभिमान हो जाये .... यह सिर्फ आप ही कर सकते है । नमन श्री पूज्यनीय योगराज प्रभाकर सर जी
Comment by vijay nikore on April 30, 2015 at 10:49am

एक अत्यंत सशक्त लघु कथा... संदेश बींधने में सफ़ल हो रहा है। हार्दिक बधाई

Comment by Pankaj Joshi on April 29, 2015 at 1:09pm

वाह सर , यह अन्नदाता की उपाधि का बोझ है ,सुंदर 

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on April 23, 2015 at 1:53pm

आदरणीय योगराज भाईजी

एक उद्योगपति को अपनी फैक्ट्री से निकले उत्पाद को देखकर जितनी खुशी होती है उससे कहीं ज़्यादा खुशी एक किसान को अपनी   भूमि से अनाज उपजाकर होती है क्योंकि यह उसके  दिन रात की मेहनत का प्रतिफल होता है। भूमि से  वह माँ की तरह प्यार करता हैं इसलिए खुद भी  मेहनत करता है और हर साल फसल लेने को अपना कर्त्तव्य और  माँ की सेवा  मानता है।  जहाँ सेवा भाव हो वहाँ लाभ हानि का ध्यान कौन रखता है, और इसी भाव के कारण ही वह अन्नदाता की उपाधि से विभूषित है। यह भाव आजकल के बच्चों में कहाँ। 

हार्दिक बधाई इस लघु कथा की । 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 23, 2015 at 1:19pm

आ० अनुज

'अन्नदाता की उपाधि " में कितना संस्कार और दर्द भरा है यह वास्तव में शहर के लोग नहीं समझ सकते .पहले तो इतने साधन भी नहीं थे . हमने उन्हें  हल से खेत् जोतते , सरावन चलाते , बालों से गेंहू मांडते  और ओसाते देखा है , कितना लहू जलाने और पसीना बहाने के बाद प्रकृति के अनुकूल रहने पर अनाज के दर्शन होते थे . तब किसान 'अन्नदाता'  कहलाता था. बहुत ही संवेदना से भरी कथा . अनुज आप इसके लिया बधाई के पात्र है .सादर .   


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 22, 2015 at 4:05pm

तुम नहीं समझोगे  के अंदर इतना कुछ है समझने के लिये कि सच मे लगता है हम नहीं समझ पायेंगे ॥ लाजवाब लघुकथा कही , आदरणीय आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 22, 2015 at 9:26am

लघुकथाओं के मर्मज्ञ एवं अत्यंत संवेदनशील लघुकथाओं के लेखक की एक अत्यंत स्तरीय प्रस्तुति ! एक ही साधे सब सधै.. की कहावत को चरितार्थ करती यह लघुकथा जहाँ देश के कृषक वर्ग की विवशताओं को प्रस्तुत करती है, वहीं दायित्व निर्वहन के जज़्बे को सामने लाती है. प्रकृति किसी के कन्धों पर दायित्व निर्वहन का ’बोझ’  --यदि यह कोई बोझ है तो--  यों ही नहीं दे देती. यह एक ऐसा संस्कार है जिसे निभाने वाला प्रकृति द्वारा चयनित होता है. हमारे समाज और व्यवस्था की घनौनी विसंगतियाँ ही सभी विडंबनाओं का मूल हैं. अतः प्रकृति के निर्णय पर प्रश्न न उठे.

आदरणीय योगराज भाईसाहब, इस लघुकथा के हार्दिक शुभकामनाएँ

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 22, 2015 at 9:03am

सुन्दर लघुकथा पर बधाई आदरणीय!

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