"बापू, हमारे साथ शहर क्यों नहीं चलते ?"
"शहर जा बसेंगे तो खेती कौन करेगा ?"
"क्या रखा है खेती में ? कभी सूखा फसल को मार जाता है तो कभी बेमौसम बरसात।"
"तुम्हें कैसे समझाऊँ बेटा।"
"खुल कर बताओ बापू, दिल पर कोई बोझ है क्या ?"
"ये अन्नदाता की उपाधि का बोझ है बेटा, तुम नहीं समझोगे ।"
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(मौलिक एवँ अप्रकाशित)
Comment
"ये अन्नदाता की उपाधि का बोझ है बेटा, तुम नहीं समझोगे ।" गज़ब आदरणीय सर | एक शशक्त कथा पढने को मिली साधुवाद सर |
टिप्पणियों पर धन्यवाद देने में हुई देरी के लिए क्षमा मांगते हुए रचना को मान बख्शने हेतु दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ आ० राजेश कुमारी जी, आ० केवल प्रसाद जी, आ० महिमा श्री जी, जीतेन्द्र पस्तरिया जी, आ० डॉ विजय शंकर जी, भाई मिथिलेश वामनकर जी, आ० कान्ता रॉय जी, आ० विजय निकोर जी, आ० पंकज जोशी जी, आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी, आ० डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी, आ० गिरिराज भंडारी जी, आ० सौरभ पाण्डेय भाई जी, भाई जान गोरखपुरी जी, आ० मोहन सेठी जी, आ० श्री सुनील जी।
एक अत्यंत सशक्त लघु कथा... संदेश बींधने में सफ़ल हो रहा है। हार्दिक बधाई
वाह सर , यह अन्नदाता की उपाधि का बोझ है ,सुंदर
आदरणीय योगराज भाईजी
एक उद्योगपति को अपनी फैक्ट्री से निकले उत्पाद को देखकर जितनी खुशी होती है उससे कहीं ज़्यादा खुशी एक किसान को अपनी भूमि से अनाज उपजाकर होती है क्योंकि यह उसके दिन रात की मेहनत का प्रतिफल होता है। भूमि से वह माँ की तरह प्यार करता हैं इसलिए खुद भी मेहनत करता है और हर साल फसल लेने को अपना कर्त्तव्य और माँ की सेवा मानता है। जहाँ सेवा भाव हो वहाँ लाभ हानि का ध्यान कौन रखता है, और इसी भाव के कारण ही वह अन्नदाता की उपाधि से विभूषित है। यह भाव आजकल के बच्चों में कहाँ।
हार्दिक बधाई इस लघु कथा की ।
आ० अनुज
'अन्नदाता की उपाधि " में कितना संस्कार और दर्द भरा है यह वास्तव में शहर के लोग नहीं समझ सकते .पहले तो इतने साधन भी नहीं थे . हमने उन्हें हल से खेत् जोतते , सरावन चलाते , बालों से गेंहू मांडते और ओसाते देखा है , कितना लहू जलाने और पसीना बहाने के बाद प्रकृति के अनुकूल रहने पर अनाज के दर्शन होते थे . तब किसान 'अन्नदाता' कहलाता था. बहुत ही संवेदना से भरी कथा . अनुज आप इसके लिया बधाई के पात्र है .सादर .
तुम नहीं समझोगे के अंदर इतना कुछ है समझने के लिये कि सच मे लगता है हम नहीं समझ पायेंगे ॥ लाजवाब लघुकथा कही , आदरणीय आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥
लघुकथाओं के मर्मज्ञ एवं अत्यंत संवेदनशील लघुकथाओं के लेखक की एक अत्यंत स्तरीय प्रस्तुति ! एक ही साधे सब सधै.. की कहावत को चरितार्थ करती यह लघुकथा जहाँ देश के कृषक वर्ग की विवशताओं को प्रस्तुत करती है, वहीं दायित्व निर्वहन के जज़्बे को सामने लाती है. प्रकृति किसी के कन्धों पर दायित्व निर्वहन का ’बोझ’ --यदि यह कोई बोझ है तो-- यों ही नहीं दे देती. यह एक ऐसा संस्कार है जिसे निभाने वाला प्रकृति द्वारा चयनित होता है. हमारे समाज और व्यवस्था की घनौनी विसंगतियाँ ही सभी विडंबनाओं का मूल हैं. अतः प्रकृति के निर्णय पर प्रश्न न उठे.
आदरणीय योगराज भाईसाहब, इस लघुकथा के हार्दिक शुभकामनाएँ
सुन्दर लघुकथा पर बधाई आदरणीय!
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