देह में तृष्णा के सागर
रेशम में ढकी गागर
इत्र से दबी गंध
लहू के धब्बों में
धुन्दलाया चेहरा
मुखोटों के पीछे
छिपाया मोहरा
न कोई मंजिल
ना कोई पहचान
बैठ ऊँचे मचान पर
ढूंढे नये आसमान
बे-माईने वक़्त का ये जहान
प्रेम परिभाषा ढूँढता वासना में
तम के घेरे में घिरा इंसान !!
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय narendrasinh chauhan जी बहुत बहुत धन्यवाद ...सादर
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी आपकी उपस्थिति और सराहना युक्त टिप्पणी के लिये आभार ...सादर
खूब सुन्दर
सुंदर प्रस्तुति. बधाई . पर न जाने क्यों अचानक रुक सी गई प्रतीत हो रही है
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