२१२२/ २१२२/ २१२२/ २१२
.दिल में गर तूफां उठे तो मुस्कुराना है कठिन
याद करना है सरल पर भूल जाना है कठिन.
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यादों के झौंके पे झूले झूलना कुछ और है,
यादों के अंधड़ को लेकिन रोक पाना है कठिन.
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हिचकियाँ आई यूँ ही होंगी तुझे नादान दिल!
भूलने वालों को तेरी याद आना है कठिन.
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आड़ दो हाथों की पाकर सर उठा लेती है लौ,
हाँ खुली छत पर दीये का जगमगाना है कठिन.
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कैसे कैसे लोग अब बसने लगे हैं शह्र में
अब लगे है यां भी अपना आब-ओ-दाना है कठिन.
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ज़ह्न-ओ-दिल पर छाई हैं यूँ आजकल दुश्वारियाँ
ख्व़ाब में भी आपसे मिलना मिलाना है कठिन.
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दोष था मेरा जो मैंने सर किसी के मढ़ दिया
जानता सबकुछ हूँ लेकिन मान पाना है कठिन.
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फैज़ है, सब के दिलों में जल रही रौशनी,
ज़ुल्म ये है, इस तपिश को आज़माना है कठिन.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
ek achhee gazal ke liye badhaee mitra
आदरणीय नूर जी ..आज तो इस ग़ज़ल को इक नहीं कई बार गुनगुनाया ..बैसे तो आपकी हर ग़ज़ल मुझे भाती है ..लेकिन इस ग़ज़ल को मुझे पसंद आयी ग़जलों में मैं सबसे वरीयता के क्रम में रखूंगा ..इसके भाव इसकी सादगी और खास रूप से ये शेर आड़ दो हाथों की पाकर सर उठा लेती है लौ,
हाँ खुली छत पर दीये का जगमगाना है कठिन.....तो सीधा दिल को छूता है ...आप ऐसा ही शानदार लिखते रहे इन्ही शुभकामनाओं के साथ सादर
शुक्रिया आ. उमेश जी ..
हाँ ..है टाइपिंग में मिस हो गया है ..
ठीक किये लेता हूँ
आभार
शुक्रिया आ. सौरभ सर.
क्रिकेट का खिलाड़ी और फैन रहा हूँ. जब boundaries न आ रहीं हों तो सिंगल्स ले के स्ट्राइक रोटेट करते रहना चाहिए :))))
शुक्रिया आ. दिनेश भाई
शुक्रिया आ. जान गोरखपुरी साहब
अति सून्दर गजल है नूर साहब् वाहहहहहहहहहह
फैज़ है, सब के दिलों में जल रही रौशनी,
ज़ुल्म ये है, इस तपिश को आज़माना है कठिन. शायद टाइपिंग में चूक है
जल रही है रौशनी होना चाहिये था अन्यथा न लें
लगता है, ये ग़ज़ल होते-होते हो गयी है.. बुरा न मानियेगा, भाईजी, मतले में भी उला सानी का आचा-पाचा बनता है ! वही फेरबदल !
वैसे ग़ज़लों में ग़ज़लियत ऐसे ही आती है.
शुभ-शुभ
वाह! लाजवाब,लाजव़ाब गजल हुयी है,संशोधनों के बाद ख़ूबसूरती और बढ़ गयी है!
मुझे आप की ये अब तक की सबसे बेहतरीन गजल लगी! क्युकी यहाँ सिर्फ आ० ''नूर'' सर है,कोई दूसरा नही!
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