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एक सादा ग़ज़ल-नूर

२१२२/ २१२२/ २१२२/ २१२ 
.दिल में गर तूफां उठे तो मुस्कुराना है कठिन
याद करना है सरल पर भूल जाना है कठिन. 
.
यादों के झौंके पे झूले झूलना कुछ और है,
यादों के अंधड़ को लेकिन रोक पाना है कठिन.
.
हिचकियाँ आई यूँ ही होंगी तुझे नादान दिल!
भूलने वालों को तेरी याद आना है कठिन.
.
आड़ दो हाथों की पाकर सर उठा लेती है लौ,
हाँ खुली छत पर दीये का जगमगाना है कठिन.
.
कैसे कैसे लोग अब बसने लगे हैं शह्र में
अब लगे है यां भी अपना आब-ओ-दाना है कठिन.
.
ज़ह्न-ओ-दिल पर छाई हैं यूँ आजकल दुश्वारियाँ
ख्व़ाब में भी आपसे मिलना मिलाना है कठिन.
.  
दोष था मेरा जो मैंने सर किसी के मढ़ दिया    
जानता सबकुछ हूँ लेकिन मान पाना है कठिन.
.
फैज़ है, सब के दिलों में जल रही रौशनी,  
ज़ुल्म ये है, इस तपिश को आज़माना है कठिन.   


.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by MUKESH SRIVASTAVA on May 11, 2015 at 1:58pm

ek achhee gazal ke liye badhaee mitra

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 8, 2015 at 5:01pm

आदरणीय नूर जी ..आज तो इस ग़ज़ल को इक नहीं कई बार गुनगुनाया ..बैसे तो आपकी हर ग़ज़ल मुझे भाती है ..लेकिन इस ग़ज़ल को मुझे पसंद आयी ग़जलों में मैं सबसे वरीयता के क्रम में रखूंगा ..इसके भाव इसकी सादगी  और खास रूप से ये शेर आड़ दो हाथों की पाकर सर उठा लेती है लौ, 
हाँ खुली छत पर दीये का जगमगाना है कठिन.....तो सीधा दिल को छूता है ...आप ऐसा ही शानदार लिखते रहे इन्ही शुभकामनाओं के साथ सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 8, 2015 at 8:48am

शुक्रिया आ. उमेश जी ..
हाँ ..है टाइपिंग में मिस हो गया है ..
ठीक किये लेता हूँ 
आभार 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 8, 2015 at 8:45am

शुक्रिया आ. सौरभ सर.
क्रिकेट का खिलाड़ी और फैन रहा हूँ. जब boundaries न आ रहीं हों तो सिंगल्स ले के स्ट्राइक रोटेट करते रहना चाहिए :)))) 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 8, 2015 at 8:43am

शुक्रिया आ. दिनेश भाई 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 8, 2015 at 8:43am

शुक्रिया आ. जान गोरखपुरी साहब 

Comment by umesh katara on May 7, 2015 at 9:54pm

अति सून्दर गजल है नूर साहब् वाहहहहहहहहहह


फैज़ है, सब के दिलों में जल रही रौशनी,  

ज़ुल्म ये है, इस तपिश को आज़माना है कठिन.   शायद टाइपिंग में चूक है
जल रही है रौशनी  होना चाहिये था अन्यथा न लें


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 7, 2015 at 4:47pm

लगता है, ये ग़ज़ल होते-होते हो गयी है.. बुरा न मानियेगा, भाईजी, मतले में भी उला सानी का आचा-पाचा बनता है ! वही फेरबदल !

वैसे ग़ज़लों में ग़ज़लियत ऐसे ही आती है.

शुभ-शुभ

Comment by दिनेश कुमार on May 7, 2015 at 3:22pm
बहुत खूब आदरणीय निलेश भाई ... बहुत खूब।
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 7, 2015 at 2:42pm

वाह! लाजवाब,लाजव़ाब गजल हुयी है,संशोधनों के बाद ख़ूबसूरती और बढ़ गयी है!

मुझे आप की ये अब तक की सबसे बेहतरीन गजल लगी! क्युकी यहाँ सिर्फ आ० ''नूर'' सर है,कोई दूसरा नही!

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