मध्य अपने जम गयी क्यों बर्फ़.. गलनी चाहिये
कुछ सुनूँ मैं, कुछ सुनो तुम, बात चलनी चाहिये
खींचता है ये ज़माना यदि लकीरें हर तरफ
फूल वाली क्यारियों में वो बदलनी चाहिये
ध्यान की अवधारणा है, ’वृत्तियों में संतुलन’
उस प्रखरतम मौन पल की सोच फलनी चाहिये !
हो सके तो बन्द सारी खिड़कियाँ हम खोल दें
अब शहर में ज़िन्दग़ी की साँस चलनी चाहिये
देश के उत्थान की चिंता करे सरकार ही ?
राष्ट्र-हित की आग तो हर दिल में’ जलनी चाहिये
भेद मत्सर औ’ घृणा के रोक ले अवशिष्ट जो-
हाथ में हर नागरिक के एक छलनी चाहिये
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-सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
बहुत खूब
शानदार ग़ज़ल हुई है ////
बहुत सुंदर गजल, सर. हर एक शे'र सादगीपूर्ण लगा. ह्रदय से बधाई स्वीकारें
आदरणीय गिरिराजभाईजी, यह एक तरही ग़ज़ल है, वो भी तुरत में प्रस्तुत करना था. वस्तुतः यह ग़ज़ल दुष्यंत की अत्यंत प्रसिद्ध ग़ज़ल पर ही आधारित है.
आपको मेरे अश’आर पसंद आये यही मेरे लिए पुरस्कार है. सादर धन्यवाद ..
भाई दिनेशजी, आपने इस प्रस्तुति को अनुमोदित कर मेरा मान किया है. हार्दिक धन्यवाद भाईजी.
आदरणीय नीलेशजी, प्रस्तुति पर आपकी चटपट उपस्थिति के लिए हार्दिक धन्यवाद. आपकी प्रशंसा मेरे लिए वस्तुतः अर्थवान है.
सादर
क्या बात है , आदरणीय सौरभ भाई , एक एक शे र एक एक सूत्र हैं जीवन के । लाजवाब गज़ल हुई है । पढ़ के दुश्यंत जी और आ. एहतराम भाई दोनो की याद ताज़ा हो गई । किसी एक - दो को चुन पाना बेहद मुश्किल काम है , पूरी गज़ल के लिये आपको हृदय से बधाइयाँ ॥
बहुत खूब आदरणीय ..बड़े गहरे शेर हुए हैं..हर शेर पर बधाई और दाद हाज़िर है
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