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इस ज़मीन की ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधाइयाँ. आपकी मेहनत रंग लायेगी..
शुभेच्छाएँ
वक़्त यूँ खामोशियों की तर्जुमानी कर गया,
उसने सब कुछ सुन लिया मैंने कहा कुछ भी नहीं।
आजकल के दौर में ऐसा ही देखा है जनाब
बस दवा ही कारगर है और दुआ कुछ भी नहीं। -- आदरणीय पूरी गज़ल बहुत शानदार कही है , दिल से बदाइयाँ स्वीकार करें । ऊपर के दो शे र मुउझे खूब पसंद आये ! हार्दिक बधाई आपको ।
इश्क़ करने का कोई इल्जाम मेरे सर न दो
दिल ने मुझसे था कहा मैंने किया कुछ भी नहीं।.....बहूत खूब आ. निर्मल नदीम जी , हार्दिक बधाई आपको इस रचना पर ! सादर
वाह वा
एक एक शेर कीमती है भाई जी
दिल खुश कर दिया
बेपनाह खूबसूरत ग़ज़ल हुई है
आदरणीय निर्मल भाई जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है दाद कुबूल फरमाएं
आदरणीय निलेश जी की बातों से मैं भी सहमत हूँ. इब्तदा से एक गाफ़ कम करने से बह्र-ए-रजज़ बदलकर बह्र-ए-रमल तो हो गया मगर जनाब बशीर बद्र साहब और महान गायक जगजीत सिंह भुलाए नहीं भूलते.
सादर.
आदरणीय नदीम जी ..इस ग़ज़ल को गुनगुनाने में बाद सुकून मिला ..हर शेर उम्दा ..काबिले तारीफ़ इस ग़ज़ल के ढेरों मुबारक बाद सादर
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