२१२२/१२१२/२२ (११२)
जब भी लफ़्ज़ों का काफ़िला निकले
ये दुआ है, फ़कत दुआ निकले.
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कोई ऐसा भी फ़लसफ़ा निकले
ख़ामुशी का भी तर्जुमा निकले.
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सुब’ह ने फिर से खोल ली आँखें
देखिये आज क्या नया निकले.
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हम कि मंज़िल जिसे समझते हैं
क्या पता वो भी रास्ता निकले.
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लुत्फ़ जीने का कुछ रहा ही नहीं
क्या हो गर मौत बे-मज़ा निकले?
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रोज़ चलता हूँ मैं, मेरी जानिब
रोज़ ख़ुद से ही फ़ासला निकले.
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गर है कामिल^, मुजस्मासाज़^^मेरा ........... ^परफेक्ट ^^शिल्पी
ख़ामियाँ मुझ में क्यूँ भला निकले?
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निलेश "नूर:
Comment
घोर आपत्तियों के मौसम में
मौन तक आज मुखर लगता है.. :-))
अब बताइये, इस नाचीज़ का आप क्या कर लेंगे.. जब मौन यों मुखर हो तो इसके कहे का कयास क्या लगायें ? जो है वो सापेक्ष ही शाब्दिक है ... . :-))))
हा हा हा............
शुक्रिया आ. सौरभ सर ..
तर्जुमा नहीं कयास लगते हैं ख़ामोशी पर सिर्फ़
आदरणीय नीलेश भाई,
हम कि मंज़िल जिसे समझते हैं
क्या पता वो भी रास्ता निकले.
.
लुत्फ़ जीने का कुछ रहा ही नहीं
क्या हो गर मौत बे-मज़ा निकले?
ये दो अश’आर संग्रहणीय हैं.
और भाईजी, ख़ामोशी का तर्जुमा तो हमेशा से होता रहा है. :-))
दाद कुबूल करें
शुक्रिया आ मदन मोहन जी
शुक्रिया आ. श्री सुनील जी
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लुत्फ़ जीने का कुछ रहा ही नहीं
क्या हो गर मौत बे-मज़ा निकले?
.
रोज़ चलता हूँ मैं, मेरी जानिब
रोज़ ख़ुद से ही फ़ासला निकले.
बधाई आपको.
शुक्रिया आ. डॉ श्रीवास्तव जी
शुक्रिया आ. तनूजा जी
शुक्रिया आ. जान गोरखपुरी साहब
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