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ग़ज़ल -नूर : ये दुआ है फ़क़त दुआ निकले

२१२२/१२१२/२२ (११२)

जब भी लफ़्ज़ों का काफ़िला निकले
ये दुआ है, फ़कत दुआ निकले.
.
कोई ऐसा भी फ़लसफ़ा निकले
ख़ामुशी का भी तर्जुमा निकले.
.
सुब’ह ने फिर से खोल ली आँखें  
देखिये आज क्या नया निकले.
.
हम कि मंज़िल जिसे समझते हैं  
क्या पता वो भी रास्ता निकले.
.
लुत्फ़ जीने का कुछ रहा ही नहीं
क्या हो गर मौत बे-मज़ा निकले?     
.
रोज़ चलता हूँ मैं, मेरी जानिब
रोज़ ख़ुद से ही फ़ासला निकले.
.
गर है कामिल^, मुजस्मासाज़^^मेरा ........... ^परफेक्ट ^^शिल्पी
ख़ामियाँ मुझ में क्यूँ भला निकले?
.
निलेश "नूर: 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 28, 2015 at 11:18am

घोर आपत्तियों के मौसम में

मौन तक आज मुखर लगता है..   :-))

अब बताइये, इस नाचीज़ का आप क्या कर लेंगे.. जब मौन यों मुखर हो तो इसके कहे का कयास क्या लगायें ? जो है वो सापेक्ष ही शाब्दिक है ... . :-))))

हा हा हा............

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 28, 2015 at 11:00am

शुक्रिया आ. सौरभ सर ..
तर्जुमा नहीं कयास लगते हैं ख़ामोशी पर सिर्फ़ 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 27, 2015 at 8:08pm

आदरणीय नीलेश भाई,

हम कि मंज़िल जिसे समझते हैं  
क्या पता वो भी रास्ता निकले.
.
लुत्फ़ जीने का कुछ रहा ही नहीं
क्या हो गर मौत बे-मज़ा निकले?  

ये दो अश’आर संग्रहणीय हैं.

और भाईजी, ख़ामोशी का तर्जुमा तो हमेशा से होता रहा है. :-))

दाद कुबूल करें

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 20, 2015 at 10:04pm

शुक्रिया आ मदन मोहन जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 20, 2015 at 10:03pm

शुक्रिया आ. श्री सुनील जी 

Comment by Madan Mohan saxena on May 20, 2015 at 2:56pm

.
लुत्फ़ जीने का कुछ रहा ही नहीं
क्या हो गर मौत बे-मज़ा निकले?
.
रोज़ चलता हूँ मैं, मेरी जानिब
रोज़ ख़ुद से ही फ़ासला निकले.
बधाई आपको.

Comment by shree suneel on May 19, 2015 at 10:22pm
हम कि मंज़िल जिसे समझते हैं
क्या पता वो भी रास्ता निकले./
बहुत ख़ूब आ0 निलेश जी

रोज़ चलता हूँ मैं, मेरी जानिब
रोज़ ख़ुद से ही फ़ासला निकले. वाहह.
बधाई आपको.
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 19, 2015 at 8:55pm

शुक्रिया आ. डॉ श्रीवास्तव जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 19, 2015 at 8:54pm

शुक्रिया आ. तनूजा जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 19, 2015 at 8:54pm

शुक्रिया आ. जान गोरखपुरी साहब 

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