२१२२ २१२२ २१२२ २१२२ - रमल मुसम्मन सालिम |
ज़िंदगी कैसे चले जब साथ कोई छोड़ जाये | |
जब खुशी हो पास आये ग़म पड़े दिल तोड़ जाये | |
दूर का जब हो सफर तब आसरा सब ढूढ़ते हैं , |
दिल लगा अपना बना फिर आश कोई तोड़ जाये | |
दिन कटे आराम से कोई जहाँ में चाहता है , |
घर कहीं कैसे चले जब चेहरा ही मोड़ जाये | |
दो जनो के मेल से चलती रहीं है जिंदगी यों , |
सिलसिला शादी बना जो इस जहाँ को जोड़ जाये | |
जब हरा हो झाड़ वर्मा फिर अनेकों फूल आते , |
आश कैसे फिर रहे जड़ से कहीं ही तोड़ जाये | |
श्याम नारायण वर्मा |
(मौलिक व अप्रकाशित) |
Comment
आदरणीय , उत्साह वर्धन के लिये आपक आभार ।
|
बहर में हुआ प्रयास आशान्वित करता है, आदरणीय श्याम नारायण जी.. शुभेच्छाएँ
आदरणीय समर कबीर जी , सही राय देने के लिए आपका बहुत बहुत आभार |
घर बार भी कैसे चले जब मुंह जग मोड़ जाये |
कैसा रहेगा |
सादर
आदरणीय समर कबीर जी , आदरणीया डा. प्राची सिंह जी , आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी , आदरणीय केवल प्रसाद जी , आदरणीय सुनील जी , आदरणीय मदन मोहन सक्सेना जी रचना भाव पसंद करने के लिए आप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद |
सादर
दो जनो के मेल से चलती रहीं है जिंदगी यों ,
सिलसिला शादी बना जो इस जहाँ को जोड़ जाये |
अच्छी ग़ज़ल
आ0 श्याम नारायण भाई जी, गज़ल विधा पर आपकी पहली रचना पढ रहा हूं. बहुत सुंदर. दाद कुबूल करें. सादर
आदरणीय श्याम नरेन् वर्मा जी बह्र में ग़ज़ल का सुन्दर प्रयास हुआ है दाद कुबूल फरमाएं. आदरणीय समर जी से सहमती व्यक्त करते हुए मिसरों से बह्र के दबाव को थोड़ा कम करने का निवेदन है
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