" पापा , आपने अगर मुझे बेटी माना है तो मुझे इस अधिकार से कभी वंचित मत कीजियेगा ", विदा होते समय वो उनसे लिपट कर रो पड़ी थी और वहाँ मौज़ूद लोगों की आँखें नम हो गयी थीं ।
वो अपने एकलौते पुत्र को खो बैठे थे जिसकी नयी नयी शादी हुई थी , और हर उस आवाज़ के सामने चट्टान बन कर खड़े हो गए थे जो उनकी बहू को इस हादसे के लिए दोषी ठहरा रहे थे । फिर उन्होंने बहू को धीरे धीरे सँभाला और उसे अपनी बेटी का दर्ज़ा दे दिया । उसके अपने माता पिता भी संतुष्ट थे कि वो अब उस घर की बेटी बन गयी थी ।
आजीवन उनका ध्यान रखने के बाद उनकी अर्थी को अपना कन्धा देकर वो बेटे का फ़र्ज़ भी निभा गयी ।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विनय जी .
सुन्दर कथा. कथा के आरम्भ और अंत ने के लम्बे समयान्तराल को समेटा है.
सादर.
सुन्दर लघुकथा
बधाई
बड़े दिल वाले - बधू भी, श्वसुर भी . बढ़िया प्रस्तुति .
बहुत उम्दा , बधाई इस लघुकथा के लिए .. |
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