कितना सुहाना होगा ………..
अपने अपने दंभों को समेटे
हम इक दूसरे की तरफ
पीठ करके चल दिए
बिना इसका अनुमान लगाये कि
मुंह मोड़ के हम
उन स्नेहिल पलों का
अनजाने में क़त्ल कर रहे हैं
जो हमने
तारों की छाँव में
चांदनी की बाहों में
नशीली निगाहों में
इक दूसरे के कन्धों पर सिर रख कर
इक दूसरे की उँगलियों में उंगलियाँ डालकर
इक दूसरे के केशों से खेलते हुए
निशा में अपने अस्तित्व को
इक दूसरे में विलीन करके संजोये थे
और हाँ ,सागर की रेत् पर पाँव के निशाँ
रतजगों से बिस्तर पर वो सलवटों के निशाँ
मुहब्बत के उन्मादी पलों की वो महकती दास्ताँ
क्या मात्र पीठ मोड़ के चल देने से
हम अपनी स्मृति से.
विस्मृत कर पायेंगे
नहीं, प्रिय नहीं
ये इतना आसाँ नहीं है
हमें एक दूसरे के लिए
एक दूसरे की तरफ
शर्तों की हदों के बिना
लौट के आना होगा
अपने अपने दंभ को
पछतावे के आंसूओं में डुबो कर
इक दूसरे के जीवन में
समर्पण भाव का
नया प्रभात लाना होगा
मैं और तुम का भेद मिटाकर
हम बन जाना होगा
फिर देखना ये सफर
कितना सुहाना होगा
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ जी रचना भावों पर आपकी स्नेह बरखा ने लेखन को सफल कर दिया। आपका तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय सुशील सरनाजी, भावदशा से उच्च प्रस्तुति केलिए हार्दिक बधाइयाँ..
शुभ-शुभ
आदरणीय shree suneel जी रचना में निहित भावों को मान देने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी रचना में निहित भावों को मान देने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय Samar kabeer जी रचना में निहित भावों को मान देने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया।
रमणीक , भव्य, सुन्दर !
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