२२२ /२२२ /२२
सच का ओज भरम क्या जाने
रौशनी मेरी तम क्या जाने
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अँधियारे को झुकने वाले
इक दीये का दम क्या जाने
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दुधिया रंग नहाने वाले
लालटेन का गम क्या जाने
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मटई प्याल की सौंधी बातें मटई/मटिया (भोजपुरी)= मिट्टी
पालथीन के बम क्या जाने
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हमको सिर्फ साकी से मतलब
और कोई मय हम क्या जाने
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बात बात पे मुकरते हैं जो
क्या होती है कसम क्या जाने
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क्या है ‘जान’ बशर का मजहब
गो ये दैरो हरम क्या जाने
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मौलिक व् अप्रकाशित (c) ‘जान’ गोरखपुरी
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Comment
आ० डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सरजी! आपकी टिप्पणी से मनोबल बहुत ऊँचा हुआ !आगे से और तत्पर होकर,रचनाओं को और अधिक समय देने का प्रयास करूँगा!!हार्दिक आभार आदरणीय इसी प्रकार स्नेह व् मार्गदर्शन बनाए रखें!
आज मन खुश है, भाई.
हमको सिर्फ़ है साकी से काम .. . इस एक मिसरे को छोड़ दें तो इस ग़ज़ल में फेलुन फेलुन .. फ़ा की रवानी है. मैं भी आदरणीय नीलेश भाई के कहे का अनुमोदन करता हूँ.
शुभेच्छाएँ
बात बात मुकरने वाले
क्या होती है कसम क्या जाने...बहुत बढ़िया
दुधिया रंग नहाने वाले
लालटेन का गम क्या जाने.. जान जी ये दो शेर तो मुझे बेहद पसंद आये ,,इस लाजबाब ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधाई सादर
प्रिय जान !
आपकी गजल् पढी . मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि नवोदितो में आप सचमुच प्रतिभावान हैं I इसलिये आप परिश्रम करते रहे . सस्नेह .
आत्मीय प्रसंशा हेतु हार्दिक आभार आ० मोहन सेठी 'इंतजार' सर!सादर
क्या बात है ...रौशनी मेरी तम क्या जाने....उम्दा ग़ज़ल के लिये बधाई
आ० समर सर! गजल पर आपकी दाद पाकर आशान्वित हुआ!हार्दिक आभार!आ० स्नेह बनाये रखें!सादर
बहुत बहुत आभार आ० मिथिलेश सर! गजल को मात्रिक भर में पुनः अवलोकन करता हूँ!
हार्दिक आभार आ० बड़े भाई केवल प्रसाद जी!
आ० सिखा जी हार्दिक आभार!
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