“सुनो, याद है न यह जगह!”
“जी याद है ,यहीं तो माँ जी की उनके इच्छा के अनुसार हमने अस्थि विसर्जन किया था !”
“और वो दुर्घटना ?”
“कैसे भूल सकती हूँ ,आज भी याद है वो दुर्घटना ,हम दोनों तो कार के नीचे दबे हुए थे ,और उसके बाद दोनों के ही एक –एक पैर काटकर किसी तरह डाक्टरों ने हमारी जान बचाई, और मां जी ने अपना सब रुपया –पैसा और जेवर हमारे इलाज में लगा दिया और उनकी दी हुई ये अंतिम निशानी ,ये बैसाखी हम दोनों का सहारा बन गयीं !”
“तुम्हें पता है मैं बार –बार यहाँ क्यों आता हूँ?”
“नहीं, शायद मां की याद !”
“हाँ ,वो तो है ही पर ,कल रात मां फिर से सपने में आई और उसने कहा “तुम लोग तन से कमजोर भले ही हो पर मन से कमजोर कभी मत बनना !” ....और उन्होंने यह भी कहा की अब 'जयपुर फुट' लगवा लो महावीर विकलांग समिति तुम्हारी सहायता करेगी और तुम दोनों ही अब अतीत को भूल कर जीवन में आगे बढ़ो !”
“और ये बैसाखी...ये हमेशा हमारे साथ रहेगी , मां की आखिरी निशानी !”
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय हरि प्रकाश जी,
एक सुन्दर भाव के साथ कथा कही है आपने.
कथन किनके बीच हो रहा है यह स्पष्ट नहीं है.
कुछ कथन विरोधाभाषी है..//“सुनो, याद है न यह जगह!”// और //“तुम्हें पता है मैं बार –बार यहाँ क्यों आता हूँ?”// किसी को जगह की याद दिलाना और बार बार उस जगह पर आना और उस जगह जहां मां की अस्थियां विसर्जित की गयीं हों... कन्फ़्युजन पैदा करता है.
दोनो व्यक्ति कार से दुर्घटनाग्रस्त हुये थे, ये उनके सामाजिक स्तर को बताता है. उन्हें जयपुर फ़ुट के बारे में ना पता हो ये बात कथा के साथ न्याय नहीं कर पा रही है.
कथा मां के उस बैसाखी के इर्द गिर्द कही गयी है तो उसे अलग भाव के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है.
सुन्दर प्रयास
सादर.
// 'जयपुर फुट' लगवा लो महावीर विकलांग समिति तुम्हारी सहायता करेगी //
विज्ञापननुमा ऐसी सलाह कमसेकम माँ तो न दे, भले लघुकथा ही क्यों न हो..
सही कहूँ तो एक अच्छे फ्लैश पर सायास प्रयास हुआ प्रतीत हो रहा है, आदरणीय हरि प्रकाश जी.
लेकिन लघुकथा की अंतर्धारा सकारात्मक है. इस हेतु हार्दिक बधाई.
सादर
आ० दुबे जी
इस सवाद मैं कथा और पंच दोनों की कमी मुझे लगती है , देखते हैं -सुधीजन क्या कहते हैं !. सादर .
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