पुष्प अधखिले : हरि प्रकाश दुबे
ओस की बूंदों में भीग कर
श्रृंगार नया मन रूप का कर
सूरज की रोशनी में चमकते हुए
खूब इठलाते हैं, पुष्प अधखिले !
मंदिर- मज़ार में चढाए जाते है
प्रभु चरणों मै अर्पित हो कर
मन में एक विश्वाश जगा
फूले नहीं समाते हैं, पुष्प अधखिले !
प्रिय को समर्पण की चाह में
किताबों में रख दिए जाते है
प्रेम के इज़हार और इंतज़ार में
सूख कर भी मुस्कराते हैं, पुष्प अधखिले !
तन के श्रृंगार को कभी गेसूओं में
कभी माला बन उर में लटक जाते हैं
कभी प्रिय के होंठों को छू जाते हैं
हर्षित कर जाते हैं , पुष्प अधखिले !
जीवन के हर उल्लास पर
हर्ष पर ,विषाद पर
सुख की सेज या मृतशय्या हो
हरदम साथ निभाते हैं, पुष्प अधखिले !
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित”
Comment
आदरणीय हरि प्रकाश भाई जी, इस सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई आपको
आदरणीय Dr. Vijai Shanker सर , बहुत बहुत धन्यवाद आपका ! सादर
// सुख की सेज या मृतशय्या हो
हरदम साथ निभाते हैं, पुष्प अधखिले // , बहुत सुन्दर रचना , बधाई आदरणीय.
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर अभी ठीक करता हूँ , आभार आपका ! सादर
मित्र 'शृंगार' लिखें . खिले पुष्प की चर्चा भी हो . सादर .
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