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बशर तमाम भीड़ में मुकाम ढूंढते रहे
जमी पे हैं मगर फलक पे नाम ढूंढते रहे
हुनर तराशने की उम्र मस्ती में ही काटकर
बिना हुनर मियां कहाँ पे काम ढूंढते रहे
कभी भी बीज आम के चमन में बोये जब नहीं
तो फिर चमन में क्यूँ यूं आप आम ढूंढते रहे
जो रिंद हैं उन्हें तो मयकशी ही रास आयेगी
वो मयकदे तलाशते हैं जाम ढूंढते रहे
जतन तमाम ही किये पढ़ाने लाडले को जब
तभी से मन ही मन वो ऊंचे दाम ढूंढते रहे
हया से चाहे बेरुखी से पलकें उनकी झुकती हों
नजर में बस ह्सीं की हम सलाम ढूंढते रहे
मुसल्मा और हिन्दू साथ साथ जब भी बैठे हैं
उन्हें भिडाने की जुगत इमाम ढूंढते रहे
बुझे हैं शोले दिल के राख में तपिश नहीं जरा
मगर तपिश भरे ही वो कलाम ढूंढते रहे
है इश्क मर्ज लाइलाज जानकार भी क्यूँ भला
इलाज सब जमाने में तमाम ढूंढते रहे
किया जो काम दाम उसके मांगते ही नहीं
तो खुद ही समझो बच्चे क्या ईनाम ढूंढते रहे
ये जलजला जो आ गया तो बेबसी दिखी बड़ी
टिका फलक पे नजरें सब पयाम ढूंढते रहे
है मुल्क मेरा ये गुलाम तो नहीं फिर भी
ये हुक्मरान जाने क्यूँ गुलाम ढूंढ रहे
मेरा वतन नहीं गुलाम सब को है पता फिर भी
ये हुक्मरान जाने क्यूँ गुलाम ढूंढते रहे
खुदा जो दिल में था उसे भी पागलो की तरह
इमारतों में आशू सुबहो शाम ढूंढते रहे
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
फिर काफ़िया भी मुकाम, चाँद, आप .....तुकांतता नहीं है ..इसे भी देख लें
बहुत ख़ूब आ. आशुतोष जी ..
इसे यूँ बाँधिए तो और निखरेगी
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बशर तमाम भीड़ में मुकाम ढूंढते रहे
जमी पे हैं मगर फलक पे चाँद ढूंढते रहे
हुनर तराशने की उम्र मस्तियों में कट गयी
बिना हुनर मियां कहाँ पे काम ढूंढते रहे
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सादर
//जो हिन्दू औ मुसल्मााँँ साथ साथ बैठ गए
लड़ाने के तरीके ही इमाम ढूंढ रहे // उम्दा ग़ज़ल , बधाई इस प्रस्तुति के लिए आदरणीय.
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