स्याह धब्बा
ढलते सूरज-से रिश्ते की बुझती लालिमा
सिकुड़ती सिमटती जा रही
अनकही बातों के अरमानों की
अप्राकृतिक अकुलाहट
अपने ही कानों में भयानक
दुर्घटना-सी
अमावस-सी अँधियारी कसकती रात
डरता है व्याकुल बेसुध मन
कि अब तुम नहीं हो पास
बहता है दुख
बेचैन बदनसीब रिश्ता ...
अब स्याह धब्बे-सा
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सुशील जी, रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय कृष्णा मिश्र जी।
बेहतरीन रचना हेतु बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय निकोर जी ..
रचना के भाव के अनुमोदन के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सुशील जी।
सुंदर काव्य जो भावनाओ को अंत:करण तक झकझोरती चली जाती है. दिली बधाई स्वीकारे. आ0 निकोर सर जी.
सराहना से मनोबल बढ़ाने के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय विजय शंकर जी।
आपकी काव्यात्मक प्रतिक्रिया बहुत अच्छी लगी।
बेचैन बदनसीब रिश्ता ...
अब स्याह धब्बे-सा
वाह आदरणीय निकोर साहिब बहुत ही गहन भावों की प्रस्तुति पेश की आपने … हार्दिक बधाई सर
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