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प्यार - एक वैचारिक अतुकांत -'' हाँ , आपसे ही कह रहा हूँ '' ( गिरिराज भंडारी )

प्यार - एक वैचारिक अतुकांत --'' हाँ , आपसे ही कह रहा हूँ ''
********************************************************************

वाह !
किसने कह दिया ?
आपके दिल में प्यार भरा है, सागर सा
खुद ही दे दिये सर्टिफिकेट , खुद को ही
वाह ! क्या बात है

बिना जाने सच्चाई क्या है ? कैसी है ?
प्यार है भी कि नहीं दुनिया में
प्यार नाम की चीज़ होती कैसी है ?
रहता कहाँ है प्यार ?
किन शर्तों में जी पाता है ? मालूम है कुछ ?

वैसे इतना ही जान लें , काफी है

क्या आपको मालूम है ?
एक बून्द भी नफरत प्यार को मार देता है
प्यार को प्यार रहने ही नहीं देता
जैसे दूध कड़ाही भर भी हो फ़ट जाता है
एक चम्मच ख़टाई से

टटोलिये ,हाँ आपसे ही कह रहा हूँ
नफरत है कि नहीं ,
किसी एक के भी लिये
है ना ? क्या कहा है !

तो फैसला हो गया
फाड़ दीजिये खुद से खुद को दिया वो सर्टिफिकेट
आप में केवल नफरत है
अगर अभी नही हैं , कम है
तो कल तक हो जायेगा
इंतिज़ार करें
***************************
मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 20, 2015 at 5:50pm

आदरणीय विजय भाई , वैचारिक रचना पर सदा आपसे प्रोत्साहन मिलता रहा है , सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 19, 2015 at 11:25am
केवल दार्शनिक तत्व की बात करें तो दुनियाँ में केवल नफरत ही नफरत है पर चाहता हर इंसान प्रेम ही है , वैसे दुनियां प्रेम से ही चलती है।
प्रस्तुति एक पक्ष को दर्शाती है , बधाई , आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 19, 2015 at 9:49am

आदरणीय महर्षि भाई , सराहना के लिये आपका आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 19, 2015 at 9:49am

आदरणीय बड़े भाई गोपल जी , रचना पर उपस्थिति  के लिये आपका आभार ।

Comment by maharshi tripathi on June 18, 2015 at 7:14pm

प्यार को प्यार रहने ही नहीं देता 
जैसे दूध कड़ाही भर भी हो फ़ट जाता है 
एक चम्मच ख़टाई से

टटोलिये ,हाँ आपसे ही कह रहा हूँ 
नफरत है कि नहीं , 
किसी एक के भी लिये 
है ना ? क्या कहा है !

तो फैसला हो गया ,,,वाह ,,बहुत बढ़िया आ. गिरिराज भंडारी सर |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 18, 2015 at 6:57pm

आ० अनुज

एक भाव दशा यह भी है -----एक पंक्ति याद आती है---------- हम भी है  वही तुम भी हो वही

                                                                                  पर चाल समय की रही न सही ----सादर .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 18, 2015 at 4:27pm

आदरणीय सौरभ भाई , रचना पर आपकी प्रतिक्रिया देख खूब प्रसन्नता हुई , अपका दिया उद्धरण  व्यवहारिक है , आदरणीय और सर्व मान्य भी । जिसमे मै खुद भी शामिल हूँ ।  बस  मेरा उद्देश्य केवल यही है /था  कि पूर्ण वास्तविक संतत्व के आये बिना प्रेम पूर्ण होने के दावे न किये जायें , एक बून्द भी नफरत है तो कब किस्सी का प्यार नफरत मे बदल जायेगा इसका कोई ठिकाना नही है । लेकिन ये भी सच है कि जीना यहीं है , मरना यहीं है । आपका हृदय से आभारी हूँ ॥


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 18, 2015 at 3:05pm

इस रचना की अंतर्धारा से उपटे भावोद्गार बहुत कुछ उद्घाटित करते हैं, आदरणीय गिरिराजभाईजी. छद्म सम्बन्धों का निर्वहन आजकी व्यावसायिक विवशता है. अन्यथा सही कहा है आपने -
टटोलिये ,हाँ आपसे ही कह रहा हूँ
नफरत है कि नहीं ,
किसी एक के भी लिये
है ना ? क्या कहा है !
तो फैसला हो गया
   
परन्तु यह भी सही है, एक पटरी पर अनायास बहते जाने का नाम जीवन नहीं है, न ऐसे इसके बर्ताव हुआ करते हैं. ईर्ष्या के वशीभूत खौलते भावोंं को इंगित कर कभी हमने भी कहा था आदरणीय. उसीसे एक पद्यांश साझा करना अप्रासंगिक नहीं होगा -

क्यों ऊबे ढो पीठ हादसे..
है जग ही में रहना !

सीधी संवाद बनाती हुई इस अभिव्यक्ति केलिए हार्दिक बधाइयाँ.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 18, 2015 at 2:51pm

आदरणीय समर भाई , आपकी सराहना से हिम्मत मिलती है , आपका हृदय से आभारी हूँ ।

Comment by Samar kabeer on June 18, 2015 at 2:33pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी,आदाब,बहुत दिनों के बाद आपकी अतुकांत कविता सुनने को मिली ,बहुत ख़ूब,इसे सुनकर आपकी बातों की गहराई में डूबता जा रहा हूँ,पंक्ति दर पंक्ति दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

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