प्यार - एक वैचारिक अतुकांत --'' हाँ , आपसे ही कह रहा हूँ ''
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वाह !
किसने कह दिया ?
आपके दिल में प्यार भरा है, सागर सा
खुद ही दे दिये सर्टिफिकेट , खुद को ही
वाह ! क्या बात है
बिना जाने सच्चाई क्या है ? कैसी है ?
प्यार है भी कि नहीं दुनिया में
प्यार नाम की चीज़ होती कैसी है ?
रहता कहाँ है प्यार ?
किन शर्तों में जी पाता है ? मालूम है कुछ ?
वैसे इतना ही जान लें , काफी है
क्या आपको मालूम है ?
एक बून्द भी नफरत प्यार को मार देता है
प्यार को प्यार रहने ही नहीं देता
जैसे दूध कड़ाही भर भी हो फ़ट जाता है
एक चम्मच ख़टाई से
टटोलिये ,हाँ आपसे ही कह रहा हूँ
नफरत है कि नहीं ,
किसी एक के भी लिये
है ना ? क्या कहा है !
तो फैसला हो गया
फाड़ दीजिये खुद से खुद को दिया वो सर्टिफिकेट
आप में केवल नफरत है
अगर अभी नही हैं , कम है
तो कल तक हो जायेगा
इंतिज़ार करें
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विजय भाई , वैचारिक रचना पर सदा आपसे प्रोत्साहन मिलता रहा है , सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥
आदरणीय महर्षि भाई , सराहना के लिये आपका आभार ।
आदरणीय बड़े भाई गोपल जी , रचना पर उपस्थिति के लिये आपका आभार ।
प्यार को प्यार रहने ही नहीं देता
जैसे दूध कड़ाही भर भी हो फ़ट जाता है
एक चम्मच ख़टाई से
टटोलिये ,हाँ आपसे ही कह रहा हूँ
नफरत है कि नहीं ,
किसी एक के भी लिये
है ना ? क्या कहा है !
तो फैसला हो गया ,,,वाह ,,बहुत बढ़िया आ. गिरिराज भंडारी सर |
आ० अनुज
एक भाव दशा यह भी है -----एक पंक्ति याद आती है---------- हम भी है वही तुम भी हो वही
पर चाल समय की रही न सही ----सादर .
आदरणीय सौरभ भाई , रचना पर आपकी प्रतिक्रिया देख खूब प्रसन्नता हुई , अपका दिया उद्धरण व्यवहारिक है , आदरणीय और सर्व मान्य भी । जिसमे मै खुद भी शामिल हूँ । बस मेरा उद्देश्य केवल यही है /था कि पूर्ण वास्तविक संतत्व के आये बिना प्रेम पूर्ण होने के दावे न किये जायें , एक बून्द भी नफरत है तो कब किस्सी का प्यार नफरत मे बदल जायेगा इसका कोई ठिकाना नही है । लेकिन ये भी सच है कि जीना यहीं है , मरना यहीं है । आपका हृदय से आभारी हूँ ॥
इस रचना की अंतर्धारा से उपटे भावोद्गार बहुत कुछ उद्घाटित करते हैं, आदरणीय गिरिराजभाईजी. छद्म सम्बन्धों का निर्वहन आजकी व्यावसायिक विवशता है. अन्यथा सही कहा है आपने -
टटोलिये ,हाँ आपसे ही कह रहा हूँ
नफरत है कि नहीं ,
किसी एक के भी लिये
है ना ? क्या कहा है !
तो फैसला हो गया
परन्तु यह भी सही है, एक पटरी पर अनायास बहते जाने का नाम जीवन नहीं है, न ऐसे इसके बर्ताव हुआ करते हैं. ईर्ष्या के वशीभूत खौलते भावोंं को इंगित कर कभी हमने भी कहा था आदरणीय. उसीसे एक पद्यांश साझा करना अप्रासंगिक नहीं होगा -
क्यों ऊबे ढो पीठ हादसे..
है जग ही में रहना !
सीधी संवाद बनाती हुई इस अभिव्यक्ति केलिए हार्दिक बधाइयाँ.
आदरणीय समर भाई , आपकी सराहना से हिम्मत मिलती है , आपका हृदय से आभारी हूँ ।
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