प्रकाशक को उपन्यास की पाण्डुलिपि थमाकर लौटी, तो आज उसका मन फूल सा हल्का हो गया। पूरे छः माह की मेहनत साकार हुई थी।पुस्तक विमोचन, सम्मान,रॉयल्टी प्रसिद्धि ये सब बारी -2 से उसकी आँखों में कौंध गए। घर पहुंची तो देखा पाँच वर्षीय बेटा बड़ी बहन की गोद में सो रहा था।उसकी आँखों में सूखे अश्रु चिन्ह,तप्त शरीर,तोड़े मरोड़े गए खिलौने,अधूरा होमवर्क,डायरी में टीचर की शिकायत ।
उफ़...ये क्या कर बैठी मैं ? अपनी महत्वाकांक्षा में अपने बच्चे के बचपन को ही गुमनामी के अंधेरों में धकेल दिया।
ज्योत्स्ना !!
( मौलिक एवम् अप्रकाशित )
Comment
सिद्धसिद्धौ निर्विकारः .. समत्वं योग उच्यते..
इस निभाते हुए कई दायित्वों को निभाना होता है. प्रस्तुति केलिए हार्दिक शुभकामनाएँ
कम शब्दों में सुन्दर संदेश देने में आपकी लघु कथा सफ़ल हुई है। हार्दिक बधाई, आदरणीया ज्योत्सना जी।
बहुत सटीक वार किया है आपने ,,आजकल लोग ,,पैसे से जितना लगाव रखते हैं उतना खुद के संतान से भी नही ,,ऐसे बच्चों का बचपन गुमनाम हो जाता है ,,,एक बेहतरीन सन्देश देती लघुकथा पर आपको बधाई |
बहुत ही बेहतरीन लघुकथा! आपकी लघुकथा ने ऐसे अनछुए पहलू को छुआ है जो मेरे ख्याल से हर महत्वाकांक्षी व्यक्ति के जीवन में आती ही है क्युकी जूनून और आत्ममुघ्धता में उसे और दुनिया बस फौरी तौर से जीन ही पड़ता हैं...जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए सब काम को सुनोयोजित तरीके से करना बेहद जरूरी होता है..पर मेरे ख्याल से खासतौर पे रचनाकार के लिए रिदम या लय में लिखना बहुत जरूरी होता है, और इसे बरकरार रखने के लिए अन्य चीजों को अवहेलना करनी ही पड़ती है!..हालांकि सामंजस्य बैठना बहुत जरूरी है खासकर जब ऐसा महत्वपूर्ण मुद्दा हो!
आपको तहदिल से बहुत बहुत बधाई आ० इस लाजव़ाब लघुकथा के लिए!
सुन्दर लघुकथा हुई है आदरणीया ज्योत्स्ना जी | कहीं न कहीं संतुलन बनाना जरुरी है , बधाई इस लघुकथा के लिए ..
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