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पिता की अचानक हुई मौत से वो टूट गया । एकदम ठीक ठाक थे , बस हल्का सा बुखार हुआ और दो दिन में चल बसे । आर्थिक स्थिति तो बदतर थी ही ,पहले माँ और अब पिताजी भी , एकदम से बड़ा हो गया वो । पुरे गाँव में ख़बर हो गयी थी और सब रिश्तेदारों को भी फोन कर दिया गया । चाचा , जो अलग रहते थे घर पर आ गए थे और अंतिम क्रिया की तैयारियों में लग गए थे ।
अंतिम संस्कार करके वापस चलते समय मौजूद सभी लोगों को रिवाज़ के अनुसार भरपेट नाश्ता कराकर वो भी चाचा के साथ ट्रैक्टर पर गाँव चल पड़ा । घर पहुँच कर चाचा ने उसको सारे खर्च का हिसाब दिया तो वो सर पकड़ कर बैठ गया । अभी तो अगले तेरह दिन तमाम कर्मकांड होने थे और उसके बाद ब्राह्मणभोज जिसमें पूरा गाँव और रिश्तेदारों को खिलाना था ।
शायद इन कर्मकाण्डों में उसके सर से माँ , बाप के बाद खेतों का साया भी उठ जाये, अब वो पूरी तरह से अनाथ हो गया था ।
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on July 4, 2015 at 5:54pm

समाज की मनोदशा दर्शाती कहानी ....सच है नयी शुरूवात कहीं से तो होने चाहिए 

Comment by shashi bansal goyal on July 4, 2015 at 3:25pm
आद0 विनय जी बहुत सार्थक लिखा है । बहुत सख्त आवश्यकता है की कोई मशाल लेकर हाथ में आये और इस प्रकार के भोज आयोजन और तेरह दिनों के कर्मकांड की कुप्रथा को समाप्त करे । आजकल इसमें भी दिखावा वाली होड़ चल पड़ी है ।जिसका खामियाज़ा असमर्थ लोगों को उठाना पड़ रहा है ।

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